ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 157/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वं ह॒ गर्भं॒ जग॑तीषु धत्थो यु॒वं विश्वे॑षु॒ भुव॑नेष्व॒न्तः। यु॒वम॒ग्निं च॑ वृषणाव॒पश्च॒ वन॒स्पतीँ॑रश्विना॒वैर॑येथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । ह॒ । गर्भ॑म् । जग॑तीषु । ध॒त्थः॒ । यु॒वम् । विश्वे॑षु । भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ । यु॒वम् । अ॒ग्निम् । च॒ । वृ॒ष॒णौ॒ । अ॒पः । च॒ । वन॒स्पती॑न् । अ॒श्वि॒नौ॒ । ऐर॑येथाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं ह गर्भं जगतीषु धत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः। युवमग्निं च वृषणावपश्च वनस्पतीँरश्विनावैरयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। ह। गर्भम्। जगतीषु। धत्थः। युवम्। विश्वेषु। भुवनेषु। अन्तरिति। युवम्। अग्निम्। च। वृषणौ। अपः। च। वनस्पतीन्। अश्विनौ। ऐरयेथाम् ॥ १.१५७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 157; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
विषय - स्त्री पुरुषों के गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( वृषणा ) उत्तम वृष्टि करने वालो सूर्य चन्द्र ! या सूर्य और वायु ! और उनके समान तेजस्वी और बलवान् स्त्री पुरुषो ! जिस प्रकार सूर्य और वायु ( जगतीषु गर्भम् ) भूमियों में और प्राणि योनियों में ऋत्वनुसार गर्भ धारण कराते हैं और ( जगतीषु ) तीनों लोकों में ( गर्भं ) वृष्टि योग्य जल को सूक्ष्म रूप से धारण कराते हैं उसी प्रकार से हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (वृषणौ) कामनाओं, सुखों, वीर्यों के सेचन और वीर्य के रक्षण करने हारो ! आप ( जगतीषु ) गमन योग्य रात्रियों में ही ( गर्भं धत्थः ) गर्भाधान क्रिया द्वारा गर्भ धारण करो इससे अतिरिक्त निषिद्ध रात्रियों में नहीं । और ( जगतीषु ) आप दोनों प्रजाओं में ( गर्भं ) वशकारी प्रधान पुरुष को ( धत्थः ) धारण या स्थापन करो । ( युवं ) आप दोनों ( विश्वेषु भुवनेषु ) सब लोकों के बीच सुख से रहो । ( युवम् ) आप दोनों ( अग्निम् ) अग्नि, और ( अपः च ) जलों को और ( वनस्पतीन् च ) वनस्पतियों को भी ( ऐरयेथाम् ) कार्य में लाओ। अथवा ( अग्निम् ) अग्रणी नायक और विनीत पुत्र, विद्वान् ज्ञानी, ( अपः च ) आप्त पुरुषों और ( वनस्पतीन् ) वृक्ष के समान सबके शरणदाता और सेना के दलपतियों और ऐश्वर्य पालकों को ( ऐरयेथाम् ) सदा अपने योग्य कार्यों पर नियुक्त करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमाः ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ जगती। ३ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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