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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    य ई॒ङ्खय॑न्ति॒ पर्व॑तान् ति॒रः स॑मु॒द्रम॑र्ण॒वम्। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ई॒ङ्खय॑न्ति । पर्व॑तान् । ति॒रः । स॒मु॒द्रम् । अ॒र्ण॒वम् । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ईङ्खयन्ति पर्वतान् तिरः समुद्रमर्णवम्। मरुद्भिरग्न आ गहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। ईङ्खयन्ति। पर्वतान्। तिरः। समुद्रम्। अर्णवम्। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    ( ये ) जो ( पर्वतान् ) पर्वतों को और ( अर्णवम् ) जलयुक्त ( समुद्रम् ) समुद्र को, अथवा—( समुद्रम् ) अन्तरिक्ष और (अर्णवम् ) समुद्र को ( तिरः ईंखयन्ति ) उथलपुथल करते हैं उन ( मरुद्भिः ) वायुओं सहित हे ( अग्ने ) सूर्य एवं विद्युत् ! तू ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो । इसी प्रकार ( ये ) जो वीर पुरुष ( पर्वतान् ) पर्वतों के समान प्रजाओं को पालन करने वाले भूमियों को कंपा देते हैं। और जो (अर्णवम्) ऐश्वर्यसम्पन्न, बलवान्, ( समुद्रम् ) जल से भरे समुद्र के समान गम्भीर सेना-बल को भी ( तिरः कुर्वन्ति ) नीचा दिखाते हैं उन ( मरुद्भिः ) वायु के समान तीव्र वेग से आक्रमण करने वाले वीर पुरुषों के साथ, हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! राजन् ! तू ( आ गहि ) प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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