ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निर्मरुतश्च
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ ये त॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभि॑स्ति॒रः स॑मु॒द्रमोज॑सा। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठआ । ये । त॒न्वन्ति॑ । र॒श्मिऽभिः॑ । ति॒रः । स॒मु॒द्रम् । ओज॑सा । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठआ। ये। तन्वन्ति। रश्मिऽभिः। तिरः। समुद्रम्। ओजसा। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
विषय - अग्नि, अग्रणी राजा, और मरुत् वीर भटों का वर्णन ।
भावार्थ -
(ये) जो वायुगण ( रश्मिभिः ) सूर्य की किरणों के ताप से ( तन्वन्ति ) फैलते हैं और ( ओजसा ) बलपूर्वक ( समुद्रम् ) अन्तरिक्ष और जलमय सागर को भी ( तिरः कुर्वन्ति ) उथलपुथल कर देते हैं, उन ( मरुद्भिः ) वेगवान् प्रचण्ड वायुओं सहित हे (अग्ने) सूर्य ! तू (आ गहि) प्राप्त हो । उसी प्रकार जो वीर पुरुष सूर्य-किरणों के समान फैलने वाली अश्व की रासों से तथा उनके समान प्रजा को वश करने वाले साधनों से राष्ट्र को विस्तृत करते हैं और ( ओजसा ) बल से अपार सागर को भी ( तिरः कुर्वन्ति ) तिरस्कार करते हैं उन वीर पुरुषों के साथ, हे नायक ! तू प्राप्त हो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें