ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निर्मरुतश्च
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒भि त्वा॑ पू॒र्वपी॑तये सृ॒जामि॑ सो॒म्यं मधु॑। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । पू॒र्वऽपी॑तये । सृ॒जामि॑ । सो॒म्यम् । मधु॑ । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु। मरुद्भिरग्न आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठअभि। त्वा। पूर्वऽपीतये। सृजामि। सोम्यम्। मधु। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
विषय - अग्नि, अग्रणी राजा, और मरुत् वीर भटों का वर्णन ।
भावार्थ -
( अग्ने ) अग्ने ! राजन् ! मैं ( त्वा ) तेरे निमित्त (सोम्यम्) ऐश्वर्य अथवा राजपद योग्य, सुखजनक ( मधु ) मधुर, अन्न आदि पदार्थ एवं और अधिकारको ( पूर्वपीतये ) सबसे प्रथम आनन्दपूर्वक स्वीकार करने के लिये सोम रस के समान ही (अभिसृजामि) प्रस्तुत करता हूं । वे ( मरुद्भिः ) वायुओं सहित जिस प्रकार सूर्य पृथिवी पर जलों को रश्मियों द्वारा पान करने के लिये आता है उसी प्रकार तू भी ( आ गहि ) आ । इति सप्तत्रिंशो वर्गः ॥ इति प्रथमष्टाके प्रथमोध्यायः समाप्तः ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
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