ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
एताया॒मोप॑ ग॒व्यन्त॒ इन्द्र॑म॒स्माकं॒ सु प्रम॑तिं वावृधाति । अ॒ना॒मृ॒णः कु॒विदाद॒स्य रा॒यो गवां॒ केतं॒ पर॑मा॒वर्ज॑ते नः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒त॒ । अया॒म । उप॑ । ग॒व्यन्तः॑ । इन्द्र॑म् । अ॒स्माक॑म् । सु । प्रऽम॑तिम् । व॒वृ॒धा॒ति॒ । अ॒ना॒मृ॒णः । कु॒वित् । आत् । अ॒स्य । रा॒यः । गवा॒म् । केत॑म् । पर॑म् । आ॒ऽवर्ज॑ते । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति । अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इत । अयाम । उप । गव्यन्तः । इन्द्रम् । अस्माकम् । सु । प्रमतिम् । ववृधाति । अनामृणः । कुवित् । आत् । अस्य । रायः । गवाम् । केतम् । परम् । आवर्जते । नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - ज्ञानवर्धक, रक्षक प्रभु की शरणप्राप्ति । पक्षान्तर में आचार्य ।
भावार्थ -
हे विद्वान् पुरुषो ! (आ इत) आओ । (गव्यन्तः) हम अपनी इन्द्रियों, वाणियों और उत्तम स्तुतियों की कामना करते हुए ( इन्द्रम् ) उस परमेश्वर की ( अयाम् ) शरण को प्राप्त हों। वह ( अस्माकं ) हमारे ( प्रमतिम् ) उत्कृष्ट कोटि के बुद्धि और ज्ञान को ( सु वावृधाति ) अच्छी प्रकार बढ़ावे। उसका ( अनामृणाः ) कोई भी मारनेवाला नहीं। वह नित्य, सदा अमर अजातशत्रु है। (आत् ) और ( अस्य ) इस ( रायः ) ऐश्वर्य ( गवां ) वेदवाणीयों और इन्द्रियों के (परं ) सर्वोच्च (केतम्) ज्ञान को (कुवित्) बहुत बार ( नः ) हमें ( आ वर्जते ) प्रदान करता है । अथवा ज्ञान को देता और अज्ञान का नाश करता है। राजा के पक्ष में—हम उस गवादि पशुओं और भूमियों की इच्छा करने वाले राजा को प्राप्त करें जो हमारे उत्कृष्ट ज्ञान और ( प्रमतिम् ) शत्रुस्तम्भक बल को बढ़ावे। वह अजातशत्रु हो । वह अपने ऐश्वर्य और पशु सम्पदा के उत्तम ज्ञान को नाना प्रकार से प्रदान करे । आचार्य पक्ष में—इसी प्रकार हम वेदवाणियों के इच्छुक होकर उत्तम ज्ञानवर्द्धक अहिंसक आचार्य को प्राप्त हो । वह वाणियों के उत्तम ज्ञान को प्रदान करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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