ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 9
दिवा॑ चि॒त्तमः॑ कृण्वन्ति प॒र्जन्ये॑नोदवा॒हेन॑ । यत्पृ॑थि॒वीं व्यु॒न्दन्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदिवा॑ । चि॒त् । तमः॑ । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । प॒र्जन्ये॑न । उ॒द॒ऽवा॒हेन॑ । यत् । पृ॒थि॒वीम् । वि॒ऽउ॒न्दन्ति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन । यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठदिवा । चित् । तमः । कृण्वन्ति । पर्जन्येन । उदवाहेन । यत् । पृथिवीम् । विउन्दन्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
विषय - मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ -
(यत्) जब ये वायुगण (पृथिवीं) पृथिवी को (वि उन्दन्ति) विशेष रूप से तरबतर कर कर रहे होते हैं तब (उदवाहेन) जल को धरने वाले (पर्जन्येन) बादल से ही (दिवा चित्) दिन के समय भी (तमः) अन्धकार (कृण्वन्ति) कर देते हैं। जब वीर पुरुष रक्तधाराओं से भूमि को गीला करते हैं तब जलधर मेघ के समान अति युद्धकारी सेनापति द्वारा दिन में भी अन्धकार या शत्रु पक्ष में अति शोककारी दृश्य उपस्थित कर देते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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