ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
दि॒वश्चि॑दस्य वरि॒मा वि प॑प्रथ॒ इन्द्रं॒ न म॒ह्ना पृ॑थि॒वी च॒न प्रति॑। भी॒मस्तुवि॑ष्माञ्चर्ष॒णिभ्य॑ आत॒पः शिशी॑ते॒ वज्रं॒ तेज॑से॒ न वंस॑गः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । चि॒त् । अ॒स्य॒ । व॒रि॒मा । वि । प॒प्र॒थ॒ । इन्द्र॑म् । न । म॒ह्ना । पृ॒थि॒वी । च॒न । प्रति॑ । भी॒मः । तुवि॑ष्मान् । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ । आ॒ऽत॒पः । शिशी॑ते । वज्र॑म् । तेज॑से । न । वंस॑गः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवश्चिदस्य वरिमा वि पप्रथ इन्द्रं न मह्ना पृथिवी चन प्रति। भीमस्तुविष्माञ्चर्षणिभ्य आतपः शिशीते वज्रं तेजसे न वंसगः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। चित्। अस्य। वरिमा। वि। पप्रथ। इन्द्रम्। न। मह्ना। पृथिवी। चन। प्रति। भीमः। तुविष्मान्। चर्षणिऽभ्यः। आऽतपः। शिशीते। वज्रम्। तेजसे। न। वंसगः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ -
(चित्) जिस प्रकार (अस्य) इस सूर्य की वरिमा, श्रेष्ठ गुण, या तेज, या बड़प्पन ( दिवः चित् ) आकाश के भी पार तक ( वि पप्रथे ) विविध दिशाओं में फैल जाता है । और (इन्द्रम्) सूर्य के ( मह्ना ) अपने महान् वैभव से (पृथिवी चन) पृथिवी भी ( प्रति न ) बराबरी नहीं करती । ठीक उसी प्रकार ( अस्य वरिमा ) उस राजा के श्रेष्ठ गुण (दिवः-चित् ) प्रकाशमान सूर्य या विस्तृत आकाश एवं बड़ी विद्वत्-राज-सभा से भी अधिक (वि पप्रथे ) विशेष रूप से विस्तृत हो । और (पृथिवी चन) समस्त पृथिवी बासी प्रजा ( मह्ना ) अपने बड़े बल से भी (इन्द्रं प्रति न) शत्रुनाशक राजा का प्रतिपक्षी न हो । वह राजा (भीमः) अति भयानक (तुविष्मान्) बलशाली होकर ( चर्षणिभ्यः ) समस्त मनुष्यों के हित के लिये (आतपः) सूर्य के समान तेज से शत्रु का संताप देने वाला होकर ( वंसगः न ) वलीवर्द जिस प्रकार भोग्य गो-गण पर जाता है उस प्रकार वह भूमियों का भोग करे। और उत्तम भोग्य अन्नों को प्राप्त कराने वाला मेघ जिस प्रकार भूमियों पर वर्षा करता है उसी प्रकार प्रजाओं को भोग्य नाना ऐश्वर्य प्रदान करने हारा हो । (तेजसे) सूर्य जिस प्रकार प्रकाश करने के लिये अपने अन्धकार-चारक ( वज्रं शिशीते ) किरण समूह को तीव्र करता है और मेघ जिस प्रकार प्रकाश के लिये (वज्रं) विद्युत् को तीक्ष्ण करता है उसी प्रकार (तेजसे) राजा भी अपने तेज और पराक्रम और प्रभाव की वृद्धि करने के लिये (वज्रम्) अपने शस्त्रास्त्र बल को सदा (शिशीते) तीक्ष्ण, सदा तैयार और अति वेगवान् उग्र, बलवान् बनाये रक्खे । परमेश्वर पक्ष में—परमेश्वर का महान् सामर्थ्य आकाश से भी दूर तक फैला है। पृथिवी उस की समानता नहीं करती। वह सर्व शक्तिमान् प्रजा के हित के लिये दुष्टों का संतापक है। वह तेज के प्रसार के लिये अन्धकार के नाशक सूर्य आदि पदार्थ को तीक्ष्ण बनाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें