ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । मंहि॑ष्ठाय । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत्ऽर॑ये । स॒त्यऽशु॑ष्माय । त॒वसे॑ । म॒तिम् । भ॒रे॒ । अ॒पाम्ऽइ॑व । प्र॒व॒णे । यस्य॑ । दुः॒ऽधर॑म् । राधः॑ । वि॒श्वऽआ॑यु । शव॑से । अप॑ऽवृतम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे। अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। मंहिष्ठाय। बृहते। बृहत्ऽरये। सत्यऽशुष्माय। तवसे। मतिम्। भरे। अपाम्ऽइव। प्रवणे। यस्य। दुःऽधरम्। राधः। विश्वऽआयु। शवसे। अपऽवृतम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ -
( प्रवणे अपाम् इव ) नीचे प्रदेश में वेग से आते हुए जलों के वेग को जिस प्रकार रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार (प्रवणे) अपने आगे विनय से रहने वाले भृत्य आदि जनों को प्राप्त होने वाला (यस्य) जिस वीर सभा और सेना आदि के अधिपति राजा का ( विश्वायु ) समस्त आयु भर (शवसे) बल की वृद्धि के लिये (अपावृतम् ) खुला हुआ, बेरोक बहाता हुआ ( राधः ) धनैश्वर्य का प्रवाह भी ( दुर्धरम् ) ऐसा प्रबल हो, जिसको प्रतिपक्षी शत्रु रोक न सके। ऐसे (मंहिष्ठाय) बड़े भारी दानशील, (बृहते) गुणों में महान्, (बृहद्रये) बड़े भारी वेग वाले, (सत्यशुष्माय) सत्य के बल वाले, अथवा सज्जनों के उपकार के लिये बल का प्रयोग करने, वाले, ( तवसे ) बलवान् पुरुष के लिये मैं ( मतिम् ) ज्ञान, स्तुति और अधिकार ( भरे ) प्रदान करूं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
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