ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ते । व॒यम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ये । त्वा॒ । आ॒ऽरभ्य॑ । चरा॑मसि । प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो । न॒हि । त्वत् । अ॒न्यः । गि॒र्व॒णः॒ । गिरः॑ । सघ॑त् । क्षो॒णीःऽइ॑व । प्रति॑ । नः॒ । ह॒र्य॒ । तत् । वचः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो। नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः ॥
स्वर रहित पद पाठइमे। ते। इन्द्र। ते। वयम्। पुरुऽस्तुत। ये। त्वा। आऽरभ्य। चरामसि। प्रभुवसो इति प्रभुऽवसो। नहि। त्वत्। अन्यः। गिर्वणः। गिरः। सघत्। क्षोणीःऽइव। प्रति। नः। हर्य। तत्। वचः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( पुरुस्तुत ) बहुत सी प्रजाओं से स्तुति किये जानेहारे ! हे (प्रभूवसो) सबके स्वामिन् और सबको वास और आश्रय देने हारे ! (ये) जो हम लोग ( त्वा आरभ्य ) तेरा आश्रय लेकर और प्रथम मंगलरूप से तेरा नाम लेकर (चरामसि) सब कार्य, धर्मानुष्ठान आदि करते हैं । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ( ते इमे ) वे ये (वयं ) हम सब ( ते ) तेरे ही हैं । (क्षोणीः इव) जिस प्रकार ऐश्वर्यवान्, पराक्रमी स्तुत्य, वीर पुरुष पराक्रम और यथार्थ सामर्थ्य से समस्त भूमियों का ( सघत् ) विजय करता है उसी प्रकार तू ( गिरः ) समस्त वेदवाणियों को ( सघत् ) प्राप्त है। समस्त वेदवाणियां तेरा ही पूर्ण रूप से प्रतिपादन करती हैं । ( त्वद् अन्यः नहि सघत् ) तेरे से दूसरा पुरुष कोई भी समस्त वेदवाणियों को यथार्थ रूप से पूर्णतया प्राप्त नहीं करता । ( तद् ) वह तू (नः) हमारे (वचः) स्तुति वचनों को ( प्रति हर्य) स्वीकार कर । अथवा—हे ( हर्य ) परम कमनीय ! कान्तियुक्त एवं कामना योग्य सुखजनक ! तू ( नः गिरः ) हमारी वाणियां श्रवण कर तथा ( वचः प्रति ) अपने उपदेश प्रदान कर । राजा के पक्ष में —हम प्रजाजन समस्त कार्य राजा का आश्रय और उसकी आज्ञा लेकर करें । उसके होकर रहें। और वह हमारी प्रार्थना सुने । देशभूमियों का विजय भी करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
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