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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ते । व॒यम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ये । त्वा॒ । आ॒ऽरभ्य॑ । चरा॑मसि । प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो । न॒हि । त्वत् । अ॒न्यः । गि॒र्व॒णः॒ । गिरः॑ । सघ॑त् । क्षो॒णीःऽइ॑व । प्रति॑ । नः॒ । ह॒र्य॒ । तत् । वचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो। नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। ते। इन्द्र। ते। वयम्। पुरुऽस्तुत। ये। त्वा। आऽरभ्य। चरामसि। प्रभुवसो इति प्रभुऽवसो। नहि। त्वत्। अन्यः। गिर्वणः। गिरः। सघत्। क्षोणीःऽइव। प्रति। नः। हर्य। तत्। वचः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे प्रभूवसो ! गिर्वणः पुरुष्टुत हर्येन्द्र जगदीश्वर ते तव कृपासहायेनेमे वयं सघत् क्षोणीरिव त्वारभ्य पृथिवीराज्यं चरामसि त्वं नोऽस्मभ्यं गिरः श्रुधि त्वदन्यः कश्चिदपि नो रक्षक इति नहि विजानीमो यच्च भवदुक्तं वेदवचस्तद्वयमाश्रयेम ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (इमे) सर्वे प्रत्यक्षा मनुष्याः (ते) तव (इन्द्र) जगदीश्वर (ते) सर्वे परोक्षाः (वयम्) सर्वे मिलित्वा (पुरुष्टुत्) पुरुभिर्बहुभिः स्तुतस्तत्सम्बुद्धौ (ये) पूर्वोक्ताः (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) त्वत्सामर्थ्यमाश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) प्रभूः सर्वसमर्थश्च वसुः सुखेषु वासप्रदश्चासौ तत्सम्बुद्धौ (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) भिन्नस्त्वत्सदृक् (गिर्वणः) योगीभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिर्वाग्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ। अत्र गिरुपदाद्वनधातोरौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (गिरः) वाचः (सघत्) हिंसन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (क्षोणीरिव) यथा पृथिवीः। क्षोणीरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (प्रति) प्राप्त्यर्थे (न) अस्मभ्यम् (हर्य) कमनीय सर्वसुखप्रापक (तत्) वक्ष्यमाणम् (वचः) उपदेशकारकं वेदवचनम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या परब्रह्मणो भिन्नं वस्तूपास्यत्वेन नाङ्गीकुर्वन्ति तदुक्तवेदाभिहितं मतं विहायान्यन्नैव मन्यन्ते त एवात्र पूज्या जायन्ते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (प्रभूवसो) समर्थ वा सुखों में वास देने (गिर्वणः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणियों से सेवनीय (पुरुष्टुत) बहुतों से स्तुति करनेवाले (हर्य) कमनीय वा सर्वसुखप्रापक (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते) आपकी कृपा के सहाय से हम लोग (सघत्) (क्षोणीरिव) जैसे शूरवीर शत्रुओं को मारते हुए पृथिवी राज्य को प्राप्त होते हैं, वैसे (नः) हम लोगों के लिये (गिरः) वेदविद्या से अधिष्ठित वाणियों को प्राप्त कराने की इच्छा करनेवाले (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न (नहि) कोई भी नहीं है (तत्) उन (वचः) वचनों को सुन कर वा प्राप्त करा जो (इमे) ये सन्मुख मनुष्य वा (ये) जो (ते) दूर रहनेवाले मनुष्य और (वयम्) हम लोग परस्पर मिलकर (ते) आप के शरण होकर (त्वारभ्य) आप के सामर्थ्य का आश्रय करके निर्भय हुए (प्रतिचरामसि) परस्पर सदा सुखयुक्त विचरते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे शूरवीर शत्रुओं के बलों को निवारण और राज्य को प्राप्त कर सुखों को भोगते हैं, वैसे ही हे जगदीश्वर ! हम लोग अद्वितीय आप का आश्रय करके सब प्रकार विजयवाले होकर विद्या की वृद्धि को कराते हुए सुखी होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    हम तो आपके ही हैं

    पदार्थ

    १. हे (पुरुष्टुत) = [पुरु स्तुतं यस्य] पालक व पूरक है स्तवन जिसका, जिसके स्तवन से हमारा रक्षण होता है और हमारी न्यूनताएँ दूर होती हैं, ऐसे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (इमे वयम्) = ये हम ये - जोकि (त्वा आरभ्य) = आपका ही आश्रय करके (चरामसि) = संसार की सब क्रियाओं को कर रहे हैं, (ते) = वे हम (ते) = आपके ही हैं । वस्तुतः प्रभु को आधार बनाकर चलनेवाला व्यक्ति ही सच्चा प्रभुभक्त है । २. हे (प्रभूवसो) = प्रभूत - धन, अनन्त ऐश्वर्यवाले (गिर्वणः) = वेदवाणियों के द्वारा उपासनीय प्रभो ! (त्वदन्यः) = आपसे भिन्न कोई भी व्यक्ति (गिरः) = हमारी स्तुतिवाणियों को (न हि सघत्) = नहीं प्राप्त करता है, अर्थात् हम आपके सिवा किसी अन्य का उपासन नहीं करते । ३. (नः) = हमारे (तत् वचः) = उन स्तुतियों को (क्षोणीः इव) = पृथिवी की भाँति (प्रतिहर्य) = स्वीकार कीजिए । यह पृथिवी जैसे हमारी पुकार को सुनती है और हमारी पुकार को सुनकर हमें अन्न आदि से पालित करती है, उसी प्रकार आप हमारी स्तुतिवाणियों को सुनिए और हमारे कर्मों में पवित्रता का सञ्चार कीजिए । वस्तुतः हम आपको न भूलकर कार्य करेंगे ते उन कर्मों में अपवित्रता का प्रवेश तो होगा ही नहीं, साथ ही हमें उन कर्मों का घमण्ड भी तो नहीं होगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का आश्रय करके कार्यों को करते हुए हम प्रभु के हो जाएँ ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( पुरुस्तुत ) बहुत सी प्रजाओं से स्तुति किये जानेहारे ! हे (प्रभूवसो) सबके स्वामिन् और सबको वास और आश्रय देने हारे ! (ये) जो हम लोग ( त्वा आरभ्य ) तेरा आश्रय लेकर और प्रथम मंगलरूप से तेरा नाम लेकर (चरामसि) सब कार्य, धर्मानुष्ठान आदि करते हैं । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ( ते इमे ) वे ये (वयं ) हम सब ( ते ) तेरे ही हैं । (क्षोणीः इव) जिस प्रकार ऐश्वर्यवान्, पराक्रमी स्तुत्य, वीर पुरुष पराक्रम और यथार्थ सामर्थ्य से समस्त भूमियों का ( सघत् ) विजय करता है उसी प्रकार तू ( गिरः ) समस्त वेदवाणियों को ( सघत् ) प्राप्त है। समस्त वेदवाणियां तेरा ही पूर्ण रूप से प्रतिपादन करती हैं । ( त्वद् अन्यः नहि सघत् ) तेरे से दूसरा पुरुष कोई भी समस्त वेदवाणियों को यथार्थ रूप से पूर्णतया प्राप्त नहीं करता । ( तद् ) वह तू (नः) हमारे (वचः) स्तुति वचनों को ( प्रति हर्य) स्वीकार कर । अथवा—हे ( हर्य ) परम कमनीय ! कान्तियुक्त एवं कामना योग्य सुखजनक ! तू ( नः गिरः ) हमारी वाणियां श्रवण कर तथा ( वचः प्रति ) अपने उपदेश प्रदान कर । राजा के पक्ष में —हम प्रजाजन समस्त कार्य राजा का आश्रय और उसकी आज्ञा लेकर करें । उसके होकर रहें। और वह हमारी प्रार्थना सुने । देशभूमियों का विजय भी करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में ईश्वर और सभा के अध्यक्ष आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे प्रभूवसः ! गिर्वणः पुरुष्टुत {ये} हर्य इन्द्र जगदीश्वर ते तव कृपासहायेन इमे{ते} वयं सघत् क्षोणीः इव{प्रति} त्वा आरभ्य पृथिवीराज्यं चरामसि त्वं नः अस्मभ्यं गिरः श्रुधि त्वद् अन्यः कश्चित् अपि नः रक्षक इति नहि विजानीमः यत् च भवद् उक्तं वेदवचः तद् {वचः} वयम् आश्रयेम ॥४॥

    पदार्थ

    हे (प्रभूवसो) प्रभूः सर्वसमर्थश्च वसुः सुखेषु वासप्रदश्चासौ तत्सम्बुद्धौ=सबसे समर्थ, सुख में निवास करनेवाले और निवास प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! (गिर्वणः) योगीभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिर्वाग्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ= योगी, वेदविद्या से संस्कारित वाणी को प्रदान करनेवाले, (पुरुष्टुत्) पुरुभिर्बहुभिः स्तुतस्तत्सम्बुद्धौ=बहुत लोगों द्वारा स्तुति किये जानेवाले, {ये} पूर्वोक्ताः=पिछले तीनों मन्त्रों में कहे गये, (हर्य) कमनीय सर्वसुखप्रापक=सुन्दर और सब प्रकार के सुख प्रदान करनेवाले, (इन्द्र) जगदीश्वर=परमेश्वर, (ते) तव=तुम्हारी, (कृपासहायेन)=कृपा की सहायता से, (इमे) सर्वे प्रत्यक्षा मनुष्याः=समस्त प्रत्यक्ष मनुष्य और, {ते} सर्वे परोक्षाः= समस्त प्ररोक्ष मनुष्य, (वयम्) सर्वे मिलित्वा=सब मिलकर के, (सघत्) हिंसन्=मारते हुए, (क्षोणीरिव) यथा पृथिवीः=जैसे पृथिवी, (इव)=के समान, {प्रति} प्राप्त्यर्थे=लेने के लिये, (त्वा) त्वाम्=तुम को, (आरभ्य) त्वत्सामर्थ्यमाश्रित्य=तुम्हारे सामर्थ्य पर आश्रित होकर, (पृथिवीराज्यम्)= पृथिवी के राज्य में, (चरामसि) विचरामः त्वम्=तुम भटक गये हो, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (गिरः) वाचः=वाणी, (श्रुधि)=सुनो, (त्वत्) तव सकाशात्=तुम्हारी समीपता से, (अन्यः) भिन्नस्त्वत्सदृक्=भिन्न जो तुम्हारे समान हो, (कश्चित्)=कोई, (अपि)=भी, (नः)=नहीं, (रक्षकः)= रक्षक है, (इति)=ऐसा, (नहि) निषेधे=न, (विजानीमः)=हम समझते हैं, (च)=और, (यत्)=जो, (भवत्)=आप, (उक्तम्) =कही गई, (वेदवचः)=वेदवाणी, (तत्) वक्ष्यमाणम्=कहा गया, {वचः} उपदेशकारकं वेदवचनम्= उपदेश कारक वेद का वचन, (वयम्) =हम, (आश्रयेम)= आश्रय लेते हैं ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य परमात्मा से भिन्न वस्तु का उपासना के लिये अङ्गीकार नहीं करते हैं, ऐसे कहे गये वेद के द्वारा कहे गये मत को छोड़ कर किसी अन्य ही मत को नहीं मानते हैं, वे ही यहाँ पूजनीय होते हैं ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (प्रभूवसो) सबसे समर्थ, सुख में निवास करनेवाले और निवास प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! (गिर्वणः) योगी, वेदविद्या से संस्कारित वाणी को प्रदान करनेवाले, (पुरुष्टुत्) बहुत लोगों द्वारा स्तुति किये जानेवाले, {ये} इस सूक्त के पिछले तीनों मन्त्रों में कहे गये, (हर्य) सुन्दर और सब प्रकार के सुख प्रदान करनेवाले, (इन्द्र) परमेश्वर (ते) तुम्हारी (कृपासहायेन) कृपा की सहायता से (इमे) समस्त प्रत्यक्ष मनुष्य और {ते} समस्त परोक्ष मनुष्य (वयम्) सब मिलकर के (सघत्) हिंसा करते हुए, (क्षोणीरिव) जैसे पृथिवी (इव) के समान, {प्रति} लेने के लिये (त्वा) तुम को, (आरभ्य) तुम्हारे सामर्थ्य पर आश्रित होकर (पृथिवीराज्यम्) पृथिवी के राज्य में (चरामसि) तुम भटक गये हो। (नः) हमारे लिये (गिरः) वाणी (श्रुधि) सुनाओ। (त्वत्) तुम्हारी समीपता से (अन्यः) भिन्न जो तुम्हारे समान हो, (कश्चित्) कोई (अपि) भी ऐसा (नः+रक्षकः) रक्षक नहीं है। (इति) ऐसा (नहि+विजानीमः) हम नहीं समझते हैं (च) और (यत्) जो (भवत्) आप (उक्तम्) की कही गई (वेदवचः) वेदवाणी और (तत्) कहे गये {वचः} उपदेशकारक वेद के वचनों का (वयम्) हम (आश्रयेम) आश्रय लेते हैं ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इमे) सर्वे प्रत्यक्षा मनुष्याः (ते) तव (इन्द्र) जगदीश्वर (ते) सर्वे परोक्षाः (वयम्) सर्वे मिलित्वा (पुरुष्टुत्) पुरुभिर्बहुभिः स्तुतस्तत्सम्बुद्धौ (ये) पूर्वोक्ताः (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) त्वत्सामर्थ्यमाश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) प्रभूः सर्वसमर्थश्च वसुः सुखेषु वासप्रदश्चासौ तत्सम्बुद्धौ (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) भिन्नस्त्वत्सदृक् (गिर्वणः) योगीभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिर्वाग्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ। अत्र गिरुपदाद्वनधातोरौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (गिरः) वाचः (सघत्) हिंसन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (क्षोणीरिव) यथा पृथिवीः। क्षोणीरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (प्रति) प्राप्त्यर्थे (न) अस्मभ्यम् (हर्य) कमनीय सर्वसुखप्रापक (तत्) वक्ष्यमाणम् (वचः) उपदेशकारकं वेदवचनम् ॥ ४ ॥ विषयः- अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे प्रभूवसो ! गिर्वणः पुरुष्टुत हर्येन्द्र जगदीश्वर ते तव कृपासहायेनेमे वयं सघत् क्षोणीरिव त्वारभ्य पृथिवीराज्यं चरामसि त्वं नोऽस्मभ्यं गिरः श्रुधि त्वदन्यः कश्चिदपि नो रक्षक इति नहि विजानीमो यच्च भवदुक्तं वेदवचस्तद्वयमाश्रयेम ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्या परब्रह्मणो भिन्नं वस्तूपास्यत्वेन नाङ्गीकुर्वन्ति तदुक्तवेदाभिहितं मतं विहायान्यन्नैव मन्यन्ते त एवात्र पूज्या जायन्ते॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमोलंकार आहेत. जसे शूरवीर शत्रूंचे बल कमी करून राज्य प्राप्त करतात व सुख भोगतात तसेच हे जगदीश्वरा! आम्ही अद्वितीय अशा तुझ्या आश्रयाने सर्व प्रकारे विजयी होऊन विद्येची वृद्धी करवून सुखी होतो. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    These are yours, Indra, We are yours, lord praised and celebrated by all. Beginning with you we go about the business of living, lord of existence and shelter of life. Other than you there is no one else, lord of holy Word, who would listen to our prayer. Hear our prayer as the voice of earth and humanity and respond with grace.

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    Subject of the mantra

    Now in this mantra the qualities of God and the Chairman of the Assembly etc. have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (prabhūvaso) = God who is most powerful, who resides in happiness and who provides abode, (girvaṇaḥ)= Yogi, the one who imparts speech conditioned by Veda knowledge, (puruṣṭut)= praised by many, {ye} =It was said in the last three mantras of this hymn, (harya)=beautiful and providing all kinds of happiness, (indra) =God, (te) =your, (kṛpāsahāyena)=with the help of grace, (ime)= all perceptible human beings and, {te} =and all imperceptible human beings, (vayam) =all together, (saghat) =committing violence, (kṣoṇīriva) =like earth, (iva) equal, {prati} =for taking, (tvā) =to you, (ārabhya)= relying on your strength, (pṛthivīrājyam) =in the kingdom of earth, (carāmasi)=you have gone astray. (naḥ) =for us, (giraḥ) =speech, (śrudhi)= tell us. (tvat) =by your proximity, (anyaḥ) =different who may be like you, (kaścit) =any, (api) =also, such, (naḥ+rakṣakaḥ) =is not a protector, (iti) =such, (nahi+vijānīmaḥ) =we don't understand, (ca) =and, (yat) =that, (bhavat) =you, (uktam) =said, (vedavacaḥ) =speech of Vedas and, (tat)= told, {vacaḥ}=preacher of the words of Vedas, (vayam) =we, (āśrayema)= take shelter.

    English Translation (K.K.V.)

    O God who is most powerful, who resides in happiness and who provides abode! Yogi, the giver of speech conditioned by the knowledge of the Vedas, praised by many people, said in the last three mantras of this hymn, the beautiful God and the giver of all kinds of happiness, with the help of your grace all the perceptible, human beings and all the imperceptible human beings will all by doing violence together, as if like the earth, you have become lost in the kingdom of the earth, relying on your power to take you. Speak for us. Apart from your proximity, there is no protector who is like you. We do not understand this and we take refuge in the words of the Vedas spoken by you and the teachings of the Vedas.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those people who do not accept anything other than God for worship, who do not believe in any other belief except the one stated in the Vedas, only they are revered here.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of Indra (God) are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We Thy devotees, are always Thine. In Thy name we start all work. O Lord, glorified by all. Our duties never we shirk. There's none who hearkens to Our earnest call but Thee God, accede to our requests We pin our faith in Thee. As the earth draws all objects to 1.rself May Thou O Lord, draw our words to Thyself.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) जगदोश्वर = God. (गिवंण:) योगिभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिवार्गीभिः वन्यते संभज्यते तत् सम्बुद्धौ अत्र गिरुपपदाद् वन-संभक्ताविति धातोरणादिकोऽसुन् प्रत्ययः = To be adored bv the Yogis with the refined Vedic words. (क्षोणी:) पृथिवी क्षोणीरिति पृथिवीनाम (निघ० १.१)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only become worthy of reverence who do not accept any one else except God as Adverable and who do not accept any thing that is not in accordance with the teachings of the Vedas-revealed by God.

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