ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 6
त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ। अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । तम् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । म॒हाम् । उ॒रुम् । वज्रे॑ण । व॒ज्रि॒न् । प॒र्व॒ऽशः । च॒क॒र्ति॒थ॒ । अव॑ । अ॒सृ॒जः॒ । निऽवृ॑ताः । सर्त॒वै । अ॒पः । स॒त्रा । विश्व॑म् । द॒धि॒षे॒ । केव॑लम् । सहः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ। अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। तम्। इन्द्र। पर्वतम्। महाम्। उरुम्। वज्रेण। वज्रिन्। पर्वऽशः। चकर्तिथ। अव। असृजः। निऽवृताः। सर्तवै। अपः। सत्रा। विश्वम्। दधिषे। केवलम्। सहः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदुपासकः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्त्वं महामुरुं वीराणां पूज्यतमां सेनामवासृजो वज्रेण यथा सूर्यः पर्वतं छित्त्वा निवृता अपस्तथा शत्रुसमूहं पर्वशश्चकर्त्तिथाङ्गमङ्गं कृन्तसि निवारयसि सत्रा विश्वं केवलं सहश्च सर्तवै दधिषे तन्त्वां सभाद्यधिपतिं वयं गृह्णीमः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सेनेशः (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक (पर्वतम्) मेघाश्रितं जलमिव पर्वताश्रितं शत्रुम् (महाम्) पूज्यतमम् (उरुम्) बहुबलादिगुणविशिष्टिम् (वज्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्रसमूहेन (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) अङ्गमङ्गम् (चकर्तिथ) कृन्तसि (अव) विनिग्रहे (असृजः) सृज (निवृताः) निवारिताः (सर्तवै) सर्तुं गन्तुम् (अपः) जलानीव (सत्रा) सत्यकारणरूपेणाविनाशि। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (विश्वम्) जगत् (दधिषे) धरसि (केवलम्) असहायम् (सहः) बलम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः शत्रूणां छेत्ता प्रजापालनतत्परो बलविद्यायुक्तोऽस्ति, स एव सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥ ६ ॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निसभाध्यक्षादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ईश्वर का उपासक कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) प्रशस्त शस्त्रविद्यावित् (इन्द्र) दुष्टों के विदारण करनेहारे सभाध्यक्ष ! जो (त्वम्) आप (महाम्) श्रेष्ठ (उरुम्) बड़ी वीर पुरुषों की सत्कार के योग्य उत्तम सेना को (अवासृजः) बनाइये और (वज्रेण) वज्र से जैसे सूर्य्य (पर्वतम्) मेघ को छिन्न-भिन्न कर (निवृताः) निवृत्त हुए (अपः) जलों को धारण करता और पुनः पृथिवी पर गिराता है, वैसे शत्रुदल को (पर्वशः) अङ्ग-अङ्ग से (चकर्त्तिथ) छिन्न-भिन्न कर शत्रुओं का निवारण करते हो (सत्रा) कारणरूप से सत्यस्वरूप (विश्वम्) जगत् को अर्थात् राज्य को धारण करके (केवलम्) असहाय (सहः) बल को (सर्त्तवै) सबको सुख से जाने-आने के न्यायमार्ग में चलने को (दधिषे) धरते हो (तम्) उस आपको सभा आदि के पति हम लोग स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो शत्रुओं के छेदन, प्रजा के पालन में तत्पर, बल और विद्या से युक्त है, उसी को सभा आदि का रक्षक अधिष्ठाता स्वामी बनावें ॥ ६ ॥ इस सूक्त में अग्नि और सभाध्यक्ष आदि के गुणों के वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
ज्ञानप्रवाह व आनन्दप्रद सहस्
पदार्थ
१. प्रभु अपने स्तोता को प्रेरणा देते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! हे (वज्रिन्) = हाथ में क्रियाशीलतारूपी वज्र को धारण करनेवाले ! (त्वम्) = तू (वज्रेण) = इस क्रियाशीलतारूपी आयुध से इस (महाम्) = महान् (उरुम्) = विशाल (पर्वतम्) = अविद्या के पाँच पर्वोंवाले पर्वत को (पर्वशः) = एक - एक पर्व करके (चकर्तिथ) = काट डालता है । अज्ञान का पर्वत पाँच पर्वोंवाला है । इन्हीं पर्वों को 'अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश' ये नाम दिये जाते हैं । इन्द्र क्रियाशीलता के द्वारा इस पर्वत का विनाश करता है । २. अविद्या के पर्वत को काटकर तू (निवृताः) = अज्ञान से आवृत हुए - हुए (अपः) = ज्ञान के जलों को (सर्तवा) = फिर से प्रवाहित होने के लिए (अवासृजः) = खुला छोड़ता है । आत्मा में ज्ञान तो है ही, उस ज्ञान को अविद्या का पर्वत रोके हुए है । यह पर्वत कटा और ज्ञान के जल का फिर से प्रवाह होने लगा । ३. (सत्रा) = यह भी सत्य है कि इस अविद्या - पर्वत के नष्ट हो जाने पर तू (विश्वम्) = व्यापक तथा (केवलम्) = आनन्द में विचरण करनेवाले शुद्ध (सहः) = बल को (दधिषे) धारण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशीलता से अविद्या - पर्वत के नष्ट होने पर ज्ञान - बल का सुप्रवाह होता है और आनन्दप्रद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त के प्रारम्भ में प्रभु को दातृतम कहा है [१] । प्रभु का धन हमारे लिए विलास की वस्तु न बनेगा तो सारा संसार हमारे अनुकूल होगा [२] । प्रभु से हमें 'यश, बल व ज्योति प्राप्त होगी [३], अतः हमें चाहिए कि हम प्रभु को अपना आधार बनाकर ही प्रत्येक कर्म करें [४] । हम प्रभु के ही हों जिसकी महिमा को द्युलोक व पृथिवीलोक गाते हैं [५] । क्रियाशीलता से हम अविद्या के पर्वत का विदारण करें [६] । 'पर्वत का विदारण करने पर हम कैसे बनेंगे' यह वर्णन अगले सूक्त में किया गया है -
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः राजन् ! सेनाध्यक्ष ! हे ( वज्रिन् ) बल, सैन्य और शस्त्रास्त्र के स्वामिन् ! ( वज्रेण ) विद्युत् द्वारा जिस प्रकार प्रबल वायु (महान्) बड़े भारी ( उरुम् ) अति विस्तृत ( पर्वतम् ) कन्धों वाले, पर्वताकार मेघ को ( पर्वशः ) टुकड़े टुकड़े काट डालता है, उसी प्रकार ( त्वं ) तू भी (तम् ) उस (पर्वतम् ) पर्वत के समान ऊंचे शिखरवाले, अभेद्य, स्थिर अथवा उच्च, प्रबल स्कन्धावारों से युक्त ( महान् ) बड़े ( उरुम् ) विस्तृत, बहुत दूर तक फैले हुए शत्रु को भी ( पर्वशः ) उसकी टुकड़ी टुकड़ी करके (चकर्त्तिथ ) काट गिरा । जिस प्रकार वायु अपने प्रबल आघात से (निवृताः) भीतर छिपे (अपः) मेघस्थ जलों को ( सर्त्तवे ) बहने के लिए (अव सृजत् ) नीचे गिरा देता है उसी प्रकार तू भी ( निवृताः ) भय के कारण छुपी हुई या प्रबलता से निवारण करदी गई ( अपः ) जल-धाराओं के समान अस्थिर शत्रु सेनाओं को (सर्त्तवै ) भाग जाने के लिए ही ( अवः असृजः ) नीचे दबा, पीड़ित कर । और उसी के निमित्त ( सत्रा ) सचमुच तू (विश्वं) समस्त (सहः) शत्रु के पराजयकारी बल को ( केवलम् ) केवल, अद्वितीय होकर ( दधिषे ) धारण कर । इति द्वाविंशो वर्गः । इति दशमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
फिर ईश्वर का उपासक कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे वज्रिन् इन्द्र ! यः त्वं महाम् उरुं वीराणां पूज्यतमां सेनाम् अव असृजः वज्रेण यथा सूर्यः पर्वतं छित्त्वा निवृता अपः तथा शत्रुसमूहं पर्वशः चकर्त्तिथा अङ्गमङ्गं कृन्तसि निवारयसि सत्रा विश्वं केवलं सहः च सर्तवै दधिषे तम् त्वां सभा आदि अधिपतिं वयं गृह्णीमः ॥६॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन्=शस्त्र और शास्त्रों के धारण करनेवाले, (इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक=सूर्य के समान शत्रु के बल को नष्ट करेवाले! (यः)=जो, (त्वम्) सेनेशः=सेनापति, (महाम्) पूज्यतमम्=पूज्यतम, (उरुम्) बहुबलादिगुणविशिष्टिम्=बहुत बल आदि और विशेष गुणों से युक्त, (वीराणाम्)= वीरों की, (पूज्यतमाम्)=सबसे पूजनीय, (सेनाम्)= सेना को, {अव} विनिग्रहे=रोकने में, (असृजः) सृज=बनाओ, (वज्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्रसमूहेन=किरणों के समान तीक्ष्ण शस्त्रों के समूह द्वारा, (यथा)=जैसे, (सूर्यः)=सूर्य, (पर्वतम्) मेघाश्रितं जलमिव पर्वताश्रितं शत्रुम्=बादल में आश्रित जल के समान पर्वत में आश्रित शत्रु को, (छित्त्वा)=छिन्न-भिन्न करके, (निवृताः) निवारिताः=रोके हुए, (अपः) जलानीव=जलों के समान, (तथा)=वैसे ही, (शत्रुसमूहम्)= शत्रुओं के समूह के, (पर्वशः) अङ्गमङ्गम्=प्रत्येक अग को, (चकर्तिथ) कृन्तसि=काट देते हो, (निवारयसि)=नष्ट कर देते हो। (सत्रा)=हर तरह से, (विश्वम्) जगत्=जगत् (केवलम्) असहायम्= असहाय, (सहः) बलम्=बल को, (च) =भी, (सर्तवै) सर्तुं गन्तुम्=जाने के लिये, (दधिषे) धरसि=धारण करते हो, (तम्) वक्ष्यमाणम्=कहे गये परमेश्वर, (त्वाम्)=आप, (सभा)=सभा, (आदि)=आदि के, (अधिपतिं)=स्वामी को, (वयम्)=हम, (गृह्णीमः)=ग्रहण करें ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा जो शत्रुओं के छेदन करनेवाला, प्रजा के पालन में तत्पर, बल और विद्या से युक्त है, उसी को सभा आदि के अध्यक्ष का कार्य करना चाहिए ॥६॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद- इस सूक्त में अग्नि और सभाध्यक्ष आदि के गुणों के वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (वज्रिन्) शस्त्र और शास्त्रों के धारण करनेवाले और (इन्द्र) सूर्य के समान शत्रु के बल को नष्ट करेवाले! (यः) जो (त्वम्) सेनापति (महाम्) पूज्यतम, (उरुम्) बहुत बल आदि और विशेष गुणों से युक्त, (वीराणाम्) वीरों की (पूज्यतमाम्) सबसे पूजनीय (सेनाम्) सेना {अव} रोकने हेतु (असृजः) बनाओ। (वज्रेण) किरणों के समान तीक्ष्ण शस्त्रों के समूह द्वारा, (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (पर्वतम्) बादल में आश्रित जल के समान पर्वत में आश्रित शत्रु को (छित्त्वा) छिन्न-भिन्न करके (निवृताः) रोके हुए (अपः) जल हैं, (तथा) वैसे ही (शत्रुसमूहम्) शत्रुओं के समूह के (पर्वशः) प्रत्येक अग को (चकर्तिथ) काट देते हो, अर्थात् (निवारयसि) नष्ट कर देते हो। (सत्रा) हर तरह से (विश्वम्) जगत् के (केवलम्) अकेले (सहः) बल को (च) भी (सर्तवै) जाने के लिये (दधिषे) धारण करते हो। [ऐसे] (तम्) कहे गये परमेश्वर (त्वाम्) आप (सभा) सभा (आदि) आदि के (अधिपतिं) स्वामी को (वयम्) हम (गृह्णीमः) ग्रहण करें ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सेनेशः (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक (पर्वतम्) मेघाश्रितं जलमिव पर्वताश्रितं शत्रुम् (महाम्) पूज्यतमम् (उरुम्) बहुबलादिगुणविशिष्टिम् (वज्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्रसमूहेन (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) अङ्गमङ्गम् (चकर्तिथ) कृन्तसि (अव) विनिग्रहे (असृजः) सृज (निवृताः) निवारिताः (सर्तवै) सर्तुं गन्तुम् (अपः) जलानीव (सत्रा) सत्यकारणरूपेणाविनाशि। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (विश्वम्) जगत् (दधिषे) धरसि (केवलम्) असहायम् (सहः) बलम् ॥ ६ ॥ विषयः- पुनस्तदुपासकः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्त्वं महामुरुं वीराणां पूज्यतमां सेनामवासृजो वज्रेण यथा सूर्यः पर्वतं छित्त्वा निवृता अपस्तथा शत्रुसमूहं पर्वशश्चकर्त्तिथाङ्गमङ्गं कृन्तसि निवारयसि सत्रा विश्वं केवलं सहश्च सर्तवै दधिषे तन्त्वां सभाद्यधिपतिं वयं गृह्णीमः ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः शत्रूणां छेत्ता प्रजापालनतत्परो बलविद्यायुक्तोऽस्ति, स एव सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥६॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्तेऽग्निसभाध्यक्षादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शत्रूंचे छेदन करणारा, प्रजेचे पालन करणारा, बल व विद्या यांनी युक्त असणारा अशा माणसाला सभा इत्यादीचा रक्षक अधिष्ठाता स्वामी बनवावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of the thunderbolt, you break that mountainous cloud of vast dimensions part by part with the thunderbolt of lightning energy. You release the held up waters for downward flow in the streams. Eternal and absolute lord of omnipotence, you alone wield and sustain the universe and universal energy.
Subject of the mantra
Then how should a worshiper of God be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vajrin) =wielder of weapons and scriptures and, (indra) =destroyer of enemy power like the Sun, (yaḥ) =that, (tvam)=commander, (mahām)=most revered, (urum)=with great strength and special qualities, (vīrāṇām) =of heroes, (pūjyatamām) =most revered, (senām) =army, {ava} =to stop, (asṛjaḥ) =create, (vajreṇa) =by a group of weapons as sharp as rays, (yathā) =like, (sūryaḥ) =Sun, (parvatam)=the enemy sheltered in a mountain is like water sheltered in a cloud, (chittvā) =by tearing apart, (nivṛtāḥ) =stopped, (apaḥ) =waters are, (tathā) =similarly, (śatrusamūham)=of group of enemies, (parvaśaḥ) =to each organ, (cakartitha)=cut off, that is, (nivārayasi) =destroy, (satrā) =from all sides, (viśvam) =of the world, (kevalam) =alone, (sahaḥ) =to power, (ca) =also, (sartavai) =for going, (dadhiṣe) =possess, [aise]=such, (tam) =said God, (tvām) =you, (sabhā) =gathering, (ādi) =et cetera, (adhipatiṃ) = to lord, (vayam) =we, (gṛhṇīmaḥ) =accept.
English Translation (K.K.V.)
O wielder of weapons and scriptures and destroyer of enemy power like the Sun! The commander who is most revered, having great strength and special qualities, create the most revered army of warriors to stop him. With the help of a group of weapons as sharp as rays, just as the Sun is like the water confined in a cloud, disintegrating the enemy sheltered in a mountain and holding back the water, in the same way you cut off every fire in the group of enemies, that is, destroy them. You hold on to the sole strength of the world in every way to go. It is said in this way that we should accept God as the Lord of the gathering et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. The one who is able to pierce the enemies through humans, is ready to obey the people, is full of strength and knowledge, he should act as the president of the assembly etc. Translation of hymn of the mantra by Maharshi Dayanand- In this hymn, from the description of the qualities of Agni and the Chairman etc., the interpretation of this hymn should be consistent with the interpretation of the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the devotee of God is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander of the Army) holder of powerful weapons like the thunderbolt, as the sun shatters into pieces the broad massive cloud with his thunderbolt in the form of rays, and sets down the waters that were confined in it or obstructed to flow, so you cut into pieces the host of your wicked enemies. You have your own victorious might and uphold the world thereby.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक =The destroyer of the strength of the enemies like the sun. (वज्त्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्र समूहेन = With the sharp weapons like the rays of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint as commander of the Army and President of the Assembly etc. a mighty and learned person who is the destroyer of his enemies and is engaged in preserving the people.
Translator's Notes
This hymn deals with the duties and attributes of the President of the Assembly, fire etc. so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the 57th. hymn of the first Mandala.
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