ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः। यत्पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । ते॒ । विश्व॑म् । अनु॑ । ह॒ । अ॒स॒त् । इ॒ष्टये॑ । आपः॑ । नि॒म्नाऽइ॑व । सव॑ना । ह॒विष्म॑तः । यत् । पर्व॑ते । न । स॒म्ऽअशी॑त । ह॒र्य॒तः । इन्द्र॑स्य । वज्रः॑ । श्नथि॑ता । हि॒र॒ण्ययः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध ते विश्वमनु हासदिष्टय आपो निम्नेव सवना हविष्मतः। यत्पर्वते न समशीत हर्यत इन्द्रस्य वज्रः श्नथिता हिरण्ययः ॥
स्वर रहित पद पाठअध। ते। विश्वम्। अनु। ह। असत्। इष्टये। आपः। निम्नाऽइव। सवना। हविष्मतः। यत्। पर्वते। न। सम्ऽअशीत। हर्यतः। इन्द्रस्य। वज्रः। श्नथिता। हिरण्ययः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः विद्युद्वत्सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
यद्यस्य हविष्मतो जनस्येन्द्रस्य हिरण्ययो ज्योतिर्मयो वज्रः पर्वते श्नथिता नेव हर्यतो व्यवहारः समशीताध ते समाश्रयेन विश्वं सर्वं जगत्सवनाऽऽपो निम्नेवेष्टये ह खल्वन्वसत् सोऽस्माभिः समाश्रयितव्यः ॥ २ ॥
पदार्थः
(अध) आनन्तर्ये (ते) तव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) अनुयोगे (ह) निश्चये (असत्) भवेत् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (आपः) जलानि (निम्नेव) यथा निम्नानि स्थानानि गच्छन्ति तथा (सवना) ऐश्वर्याणि (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य (यत्) यस्य (पर्वते) गिरौ मेघे वा (न) इव (समशीत) सम्यग् व्याप्नुयात्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (हर्यतः) गमयिता कमनीयो वा (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) ऊष्मसमूहः (श्नथिता) हिंसिता (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शैलं मेघं वा समाश्रित्य सिंहादयो जलानि वा रक्षितानि स्थिराणि जायन्ते, तथैव सभाद्यध्यक्षाश्रयेण प्रजाः स्थिरानन्दा भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर बिजुली के दृष्टान्त से सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
(यत्) जिस (हविष्मतः) उत्तम दानग्रहणकर्त्ता (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवाले सभाध्यक्ष का (हिरण्ययः) ज्योतिःस्वरूप (वज्रः) शस्त्ररूप किरणें (पर्वते) मेघ में (न) जैसे (श्नथिता) हिंसा करनेवाला होता है, वैसे (हर्यतः) उत्तम व्यवहार (समशीत) प्रसिद्ध हो (अध) इसके अनन्तर (ते) आप के समाश्रय से (विश्वम्) सब जगत् (सवना) ऐश्वर्य को (आपः) जल (निम्नेव) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (इष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये (ह) निश्चय करके (अन्वसत्) हो, उसी सभाध्यक्ष वा बिजुली का हम सब मनुष्यों को समाश्रय वा उपयोग करना चाहिये ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पर्वत वा मेघ का समाश्रय कर सिंह आदि वा जल रक्षा को प्राप्त होकर स्थित होते हैं, जैसे नीचे स्थानों में रहनेवाला जलसमूह सुख देनेवाला होता है, वैसे ही सभाध्यक्ष के आश्रय से प्रजा की रक्षा तथा बिजुली की विद्या से शिल्पविद्या की सिद्धि को प्राप्त होकर सब प्राणी सुखी होवें ॥ २ ॥
विषय
'हर्यत - हिरण्यय - श्नथिता' वन
पदार्थ
१. (अध) = अब जबकि गतमन्त्र के अनुसार आपका धन हमारे लिए 'विश्वायु' बनता है, न कि 'क्षीणायु' (ते विश्वम्) = तेरा यह संसार (ह) = निश्चय से (अनु असत्) = अनुकूल होता है । भोग - विलास की वृत्ति से ऊपर उठे हुए व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण संसार अनुकूल होता है । २. और इन (हविष्मतः) = हविष्मान् व्यक्तियों के (सवना) = यज्ञ (इष्टये) = आपकी प्राप्ति के लिए होते हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसे (आपः) = जल निम्न स्थलों को प्राप्त होने के लिए होते हैं । भोगवृत्ति से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति यज्ञशील बनता है और इन यज्ञों के द्वारा आपको प्राप्त करनेवाला होता है । ३. यह होता तभी है (यत्) = जब (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का (हर्यतः) = गतिवाला, चाहने योग्य अथवा शोभन [कान्त] (हिरण्ययः) = चमकता हुआ, ज्ञान की दीप्तिवाला (श्नथिता) = शत्रुओं का संहार करनेवाला (वज्रः) = वज्र (पर्वते) = पञ्च पावाली अविद्या पर न (समशीत) = सोया हुआ नहीं होता, अपितु सतत जागरित होता है, अर्थात् जब इन्द्र वज्र के द्वारा अविद्या के पर्वत का विदारण कर देता है तभी वह हविष्मान् बनकर यज्ञों के द्वारा उस प्रभु को प्राप्त करता है । 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष है । क्रियाशीलता ही [वज् गतौ] उसका वज्र है । यह वज्र 'हर्यत, हिरण्यय व श्नथिता' है, शोभन, दीप्त व शत्रु - संहारक है । इस इन्द्र की क्रियाएँ शोभन [चाहने योग्य] होती हैं । यह अवाञ्छनीय क्रियाओं को नहीं करता । इसकी क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक होने से पवित्र होती हैं । ज्ञान ही पवित्रता के द्वारा काम - क्रोधादि शत्रुओं का संहार करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम भोगप्रवणता से ऊपर उठकर सारे संसार को अपने अनुकूल बना लेते हैं । उस समय हमारे यज्ञ हमें प्रभु को प्राप्त कराते हैं । हम शोभन क्रियाओं के द्वारा अज्ञान को नष्ट करनेवाले होते हैं ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
( आपः निम्ना इव ) जिस प्रकार जल प्रवाह नीचे स्थानों पर आप से आप बह आते हैं उसी प्रकार ( हविष्मतः ) उत्तम, ग्रहण करने योग्य अन्नों और ऐश्वर्य से सम्पन्न पुरुष के ( स वना ) ज्ञान और ऐश्वर्यों के वंश में ( इष्टये ) अपनी उत्तम कामनाओं को पूर्ण करने के लिये ( विश्वम् अनु असत् ) समस्त जगत् रहे । (अध) और (इन्द्रस्य) सूर्य का ( हिरण्ययः वज्रः ) अन्धकार का नाश करने वाला ज्योतिर्मय, प्रकाश रूप वज्र ( न ) जिस प्रकार ( हर्यतः ) अति कान्ति युक्त होकर ( पर्वते सम् अशीत ) मेघ में व्यापता और ( श्नथिता ) उसको छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता, वीर सेनापति का ( हिरण्ययः ) ऐश्वर्यमय और लोह आदि धातु का बना ( वज्रः ) शस्त्रास्त्र बल ( हर्यतः ) अति वेगवान, दर्शनीय, अद्भुत ( हर्यते ) पर्वत के समान अचल और मेघ के समान अस्त्रवर्षी शत्रु पर भी ( सम् अशीत ) अच्छी प्रकार व्यापे, उस पर वश करे और (श्नथिता) उसका हनन करके उसे शिथिल करने वाला हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
फिर बिजली के दृष्टान्त से सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यद् यस्य हविष्मतः जनस्य इन्द्रस्य हिरण्ययः ज्योतिर्मयः वज्रः पर्वते श्नथिता न इव हर्यतः व्यवहारः समशीत अध ते समाश्रयेन विश्वं सर्वं जगत् सवना आपः निम्ना इव इष्टये ह खलु अनु असत् सः अस्माभिः समाश्रयितव्यः ॥२॥
पदार्थ
(यत्) यस्य=जिसकी, (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य=प्रशंसनीय हवियाँ विद्यमान हैं, ऐसे, (जनस्य)=मनुष्य के, (इन्द्रस्य) विद्युतः= विद्युत की, (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः=ज्योति, (वज्रः) ऊष्मसमूहः=गर्मी का समूह, (पर्वते) गिरौ मेघे वा=बादल में, (श्नथिता) हिंसिता=छिन्न-भिन्न, के (न) इव=समान, (हर्यतः) गमयिता कमनीयो वा=पहुँचाया गया या सुन्दर, (व्यवहारः)= व्यवहार, (समशीत) सम्यग् व्याप्नुयात्=अच्छी तरह से पहुँचता है, (अध) आनन्तर्ये= इसके तत्काल बाद में, (ते) तव=तुम्हारे, (समाश्रयेन)= आश्रय के द्वारा, (विश्वम्) सर्वं जगत्=समस्त जगत् के(सवना) ऐश्वर्याणि=ऐश्वर्य और (आपः) जलानि=जल, (निम्नेव) यथा निम्नानि स्थानानि गच्छन्ति तथा=जैसे नीचे के गहरे स्थानों में जाते हैं, (इष्टये) अभीष्टसिद्धये =इच्छित सिद्धि के लिये, (ह) निश्चये = निश्चित रूप से, (अनु) अनुयोगे = आध्यात्मिक मिलन, (असत्) भवेत्=होवे, (सः) =वह, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (समाश्रयितव्यः)= पूर्ण रूप सेआश्रय लिये जाने योग्य है ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पर्वत वा बादल आदि का आश्रय लेकर वर्षा आदि के जल से रक्षित और स्थिर होते हैं, वैसे ही सभा आदि के अध्यक्ष के आश्रय से प्रजा स्थिर और आनन्दित होती हैं ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यत्) जिसकी (हविष्मतः) प्रशंसनीय हवियाँ विद्यमान हैं, ऐसे (जनस्य) मनुष्य की (इन्द्रस्य) विद्युत की (हिरण्ययः) ज्योति, (वज्रः) ऊष्मा का समूह, (पर्वते) बादल के (श्नथिता) छिन्न-भिन्न होने के (न) समान (हर्यतः) पहुँचाया गया है और सुन्दर (व्यवहारः) व्यवहार (समशीत) अच्छी तरह से पहुँचता है। (अध) इसके तत्काल बाद में (ते) तुम्हारे (समाश्रयेन) आश्रय के द्वारा (विश्वम्) समस्त जगत् के (सवना) ऐश्वर्य और (आपः) जल (निम्नेव) जैसे नीचे के गहरे स्थानों में जाते हैं और (इष्टये) इच्छित सिद्धि के लिये (ह) निश्चित रूप से (अनु) आध्यात्मिक मिलन (असत्) होवे। (सः) वह [परमेश्वर] (अस्माभिः) हमारे द्वारा (समाश्रयितव्यः) पूर्ण रूप से आश्रय लिये जाने योग्य है ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अध) आनन्तर्ये (ते) तव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) अनुयोगे (ह) निश्चये (असत्) भवेत् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (आपः) जलानि (निम्नेव) यथा निम्नानि स्थानानि गच्छन्ति तथा (सवना) ऐश्वर्याणि (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य (यत्) यस्य (पर्वते) गिरौ मेघे वा (न) इव (समशीत) सम्यग् व्याप्नुयात्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (हर्यतः) गमयिता कमनीयो वा (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) ऊष्मसमूहः (श्नथिता) हिंसिता (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः ॥ २ ॥ विषयः- पुनः विद्युद्वत्सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- यद्यस्य हविष्मतो जनस्येन्द्रस्य हिरण्ययो ज्योतिर्मयो वज्रः पर्वते श्नथिता नेव हर्यतो व्यवहारः समशीताध ते समाश्रयेन विश्वं सर्वं जगत्सवनाऽऽपो निम्नेवेष्टये ह खल्वन्वसत् सोऽस्माभिः समाश्रयितव्यः ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शैलं मेघं वा समाश्रित्य *सिंहादयो जलानि वा रक्षितानि स्थिराणि जायन्ते, तथैव सभाद्यध्यक्षाश्रयेण प्रजाः स्थिरानन्दा भवन्ति(*मिहादयो-प्रतीतः- अनुवादकः) ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे पर्वत किंवा मेघ यांचा आश्रय घेऊन सिंह, जल इत्यादींचे रक्षण होते व ते स्थित होतात. जसे निम्न स्थली राहणारा जलसमूह सुख देणारा असतो. तसेच सभाध्यक्षाच्या आश्रयाने प्रजेचे रक्षण व्हावे व विद्युत विद्येने शिल्पविद्येची सिद्धी प्राप्त करून सर्व प्राणी सुखी व्हावेत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the golden glorious thunderbolt of Indra struck at the cloud reaches to the heart of the vapours and the treasure streams of water flow down to the sea, so may the fruits of the holy works of yajnic people and the wealth of the world flow to you like streams of water for your fulfilment and freedom. (The ruler is the nation’s centre and chief yajamana of the nation’s yajnic activity.)
Subject of the mantra
Then, using the example of lightning, the virtues of the chairman of the Assembly etc. have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yat)=whose (haviṣmataḥ) =praiseworthy offerings are present, such (janasya) =of person, (indrasya) =of electricity, (hiraṇyayaḥ)= light, (vajraḥ) =mass of heat, (parvate) =of cloud, (śnathitā)=dispersing of, (na) =like, (haryataḥ)=delivered and beautiful, (vyavahāraḥ)=behavior, (samaśīta) =reaches well, (adha)=immediately after this, (te) =your, (samāśrayena)= through your shelter(viśvam) =of the whole world, (savanā) =opulence and, (āpaḥ) =water, (nimneva) =like going into the deep places below and, (iṣṭaye)=for the desired accomplishment, (ha)= definitely, (anu)= spiritual union(asat) =be, (saḥ) =that, [parameśvara]=god, (asmābhiḥ)=by us, (samāśrayitavyaḥ)=Is completely worthy of being sheltered.
English Translation (K.K.V.)
The electric light, the mass of heat of such a person whose praiseworthy offerings are present, has been conveyed like the dispersing of a cloud and the beautiful behaviour reaches well. Immediately after this, through your shelter, the opulence of the entire world and the water go to the deep places below and there be definitely a spiritual union for the desired accomplishment. That God is worthy of being completely taken shelter by us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are paronomasia and silent vocal simile as figurative in this mantra. Like taking shelter of mountain or cloud and being protected from rain water etc., in the same way, the people become stable and happy with the shelter of the Chairman of the Assembly et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the President of the Assembly who is like electricity are taught further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We should take shelter in such an Indra (President of the Assembly or the Council of Ministers) whose resplendent fatal thunderbolt smites down even a powerful enemy. As the waters flow to a depth, so all persons bow down before such a mighty leader who possesses all desirable virtues and objects, for the fulfilment of their noble desires. As the resplendent thunderbolt of the sun in the form of his rays slays all the clouds, so the powerful weapon of the President of the Assembly or the Commander of the Army may smash even mighty foes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(हर्यतः ( गमयिता कमनीयो वा = Impellor or desirable. हर्य-गतिप्रेप्सयोः ( सवना) ऐश्वर्याणि == Wealth of all kinds षु प्रसवैश्वर्ययोः
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the lions and other wild beasts in the mountain and waters in the cloud become safe and secure, so the subjects become firmly established in happiness and bliss by resorting to the President of the Assembly etc.
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