ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे। यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । भी॒माय॑ । नम॑सा । सम् । अ॒ध्व॒रे । उषः॑ । न । शु॒भ्रे॒ । आ । भ॒र॒ । पनी॑यसे । यस्य॑ । धाम॑ । श्रव॑से । नाम॑ । इ॒न्द्रि॒यम् । ज्योतिः॑ । अका॑रि । ह॒रितः॑ । न । अय॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे। यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। भीमाय। नमसा। सम्। अध्वरे। उषः। न। शुभ्रे। आ। भर। पनीयसे। यस्य। धाम। श्रवसे। नाम। इन्द्रियम्। ज्योतिः। अकारि। हरितः। न। अयसे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 57; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्य ! त्वं यस्य धाम श्रवसेऽस्ति येनायसे हरितो न येन नामेन्द्रियं ज्योतिकारि क्रियतेऽस्मै भीमाय पनीयसे शुभ्र अध्वर उषो न प्रातःकाल इव नमसा समाभर ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अस्मै) सभाध्यक्षाय (भीमाय) दुष्टानां भयंकराय (नमसा) सत्कारेण (सम्) सम्यगर्थे (अध्वरे) अहिंसनीये धर्मे यज्ञे (उषः) उषाः। अत्र सुपाम् इति विभक्तेर्लुक्। (न) इव (शुभ्रे) शोभमाने सुखे (आ) समन्तात् (भर) धर (पनीयसे) यथायोग्यं व्यवहारं कुर्वते स्तोतुमर्हाय (यस्य) उक्तार्थस्य (धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिंस्तत् (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (नाम) प्रख्यातिः (इन्द्रियम्) प्रशस्तं बुद्ध्यादिकं चक्षुरादिकं वा (ज्योतिः) न्यायविनयप्रचारकम् (अकारि) क्रियते (हरितः) दिशः (न) इव (अयसे) विज्ञानाय। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा प्रातःकालः सर्वान्धकारं निवार्य सर्वान् प्रकाश्याह्लादयति तथैव अन्यायविनाशको गुणाधिक्येन प्रशंसितः सत्कृत्य संग्रामादिव्यवहारे संस्थाप्यः। यथा दिशो व्यवहारं प्रज्ञापयन्ति तथैव विद्यासुशिक्षासेनाविनयन्यायानुष्ठानादिना सर्वान् भूषयित्वा धनान्नादिभिः संयोज्य सततं सुखयेत्। स एव सभाद्यधिकारे प्रधानः कर्त्तव्यः ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्य ! तू (यस्य) जिस सभाध्यक्ष का (धाम ) विद्यादि सुखों का धारण करनेवाला (श्रवसे) श्रवण वा अन्न के लिये है, जिसने (अयसे) विज्ञान के वास्ते (हरितः) दिशाओं के (न) समान (नाम) प्रसिद्ध (इन्द्रियम्) प्रशंसनीय बुद्धिमान् आदि वा चक्षु आदि (अकारि) किया है (अस्मै) इस (भीमाय) दुष्ट वा पापियों को भय देने (पनीयसे) यथायोग्य व्यवहार, स्तुति करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (शुभ्रे) शोभायमान शुद्धिकारक (अध्वरे) अहिंसनीय धर्मयुक्त यज्ञ (उषः) प्रातःकाल के (न) समान (नमसा) नमस्ते वाक्य के साथ (समाभर) अच्छे प्रकार धारण वा पोषण कर ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को समुचित है कि जैसे प्रातःकाल सब अन्धकार का निवारण और सबको प्रकाश से आनन्दित करता है, वैसे ही शत्रुओं को भय करनेवाले मनुष्य को गुणों की अधिकता से स्तुति, सत्कार वा संग्रामादि व्यवहारों में स्थापन करें। जैसे दिशा व्यवहार की जाननेहारी होती है, वैसे ही जो विद्या उत्तम शिक्षा, सेना, विनय, न्यायादि से सबको सुभूषित धन अन्न आदि से संयुक्त कर सुखी करे, उसी को सभा आदि अधिकारों में सब मनुष्यों को अधिकार देवें ॥ ३ ॥
विषय
'धाम - नाम - ज्योति'
पदार्थ
१. हे (शुभे उषः) = अत्यन्त उज्ज्वल व शुभ्र उषः काल ! तू (अस्मै भीमाय) = इन शत्रुओं के लिए भयंकर (पनीयसे) = स्तुत्य प्रभु के लिए (न) = [सम्प्रति] अब नमसा नमन के द्वारा (अध्वरे) = हिंसारहित कर्मों में (समाभरा) = हमें प्राप्त करा । हम प्रातः काल 'नमस् [सन्ध्या] व अध्वर [यज्ञ] करने की वृत्तिवाले हों । ये दोनों बातें हमें प्रभु की ओर ले - चलेंगी । उषः काल जैसे अन्धकार को दग्ध करके चमक उठता है, उसी प्रकार हम भी लोभादि को नष्ट करके दीप्तहृदय हों । इस उषः काल में हम ध्यान व यज्ञ से प्रभु की ओर चलनेवाले बनें । २. प्रभु की ओर चलने से क्या होगा ? इस बात का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ये प्रभु वे हैं - [क] (यस्य) = जिनका (धाम) = तेज (श्रवसे) = हमारे यश के लिए होता है । प्रभु के तेज से तेजस्वी बनकर हम शत्रुओं का संहार करते हैं और यशस्वी होते हैं । [ख] ये प्रभु वे हैं जिनका नाम - (नाम) = उच्चार (इन्द्रियम्) = शक्ति को देनवाला है । जहाँ प्रभु के नाम का उच्चारण होता है, वहाँ काम आदि शत्रु भयभीत होकर आते ही नहीं, यही नामस्मरण की महिमा है । [ग] उस प्रभु की (ज्योतिः) = ज्ञान की ज्योति (अयसे) = लक्ष्य - स्थान पर पहुँचने के लिए (अकारि) = ठीक उसी प्रकार होती है (न हरितः) = जैसे कि घोड़े लक्ष्यस्थान पर पहुँचाने में सहायक होते हैं । प्रभु से प्राप्त कराये गये ज्ञान के प्रकाश में भटकने की आशंका नहीं रहती ।
भावार्थ
भावार्थ - हम उस प्रभु का स्मरण करें जिसकी तेजस्विता हमें यशस्वी बनाती है, जिसका नाम - स्मरण हमें तेजस्वी बनाता है और जिसकी ज्योति हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाकर लक्ष्यस्थान पर पहुँचाती है ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
जो ( शुभ्रे उषः न ) शोभा युक्त प्रकाश के करने में प्रभात वेला के समान होकर ( शुभ्रे अध्वरे ) शोभायुक्त, सुखजनक, उत्तम हिंसारहित प्रजापालन के कार्य में सूर्य के समान, शत्रु और दुष्ट पुरुषों के असत्य व्यवहार छल कपट आदि को दूर करने हारा है, और (यस्य धाम) जिसका तेज और धारण सामर्थ्य, (नाम) ख्याति और शत्रुओं को नमाने वाला बल, ( इन्द्रियं ) ऐश्वर्य और राजपद, (ज्योतिः) प्रकाश न्याय और विज्ञान भी ( हरितः न ) दिशाओं के समान ( अयसे अकारि ) उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिये किया जाता है (अस्मै ) उस ( भीमाय ) बलों के लिये अति भयंकर, (पनीयसे) अति स्तुति योग्य, एवं उत्तम कार्यकुशल पुरुष के लिये (नमसा) आदरपूर्वक भरण पोषण कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४ जगती । ३ विराट् । ६ निचृज्जगती । ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्य ! त्वं यस्य धाम श्रवसे अस्ति येन अयसे हरितः न येन नाम इन्द्रियं ज्योतिः अकारि क्रियते अस्मै भीमाय पनीयसे शुभ्र अध्वर उषः न प्रातःकाल इव नमसा सम् आ भर ॥३॥
पदार्थ
हे (मनुष्यः)= मनुष्य ! (त्वम्)=तुम, (यस्य) उक्तार्थस्य=सूक्त के [पहले दो मन्त्रों में] कहे गये अर्थ के अनुसार, (धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिंस्तत्=विद्या आदि सुख को धारण और प्राप्त करनेवाले,(श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा =सुनने और अन्न के लिये, (अस्ति) =है, (येन)=जिससे, (अयसे) विज्ञानाय=विशेष ज्ञान के लिये, (हरितः) दिशः= दिशा के, (न) इव=समान, (येन)=जिसके द्वारा, (नाम) प्रख्यातिः= प्रसिद्धि, (इन्द्रियम्) प्रशस्तं बुद्ध्यादिकं चक्षुरादिकं वा= प्रशंसनीय बुद्धि या आँखों आदि से, (ज्योतिः) न्यायविनयप्रचारकम्= न्याय और विनय का प्रचार, (अकारि) क्रियते=किया जाता है। (अस्मै) सभाध्यक्षाय= सभा आदि के अध्यक्ष के लिये, (भीमाय) दुष्टानां भयंकराय=भयंकर दुष्टों के लिये, (पनीयसे) यथायोग्यं व्यवहारं कुर्वते स्तोतुमर्हाय=स्तुति करने के योग्य यथायोग्य व्यवहार करते हुए, (शुभ्रे) शोभमाने सुखे=सुन्दर सुख में, (अध्वरे) अहिंसनीये धर्मे यज्ञे= अहिंसनीय धार्मिक यज्ञ में, (उषः) उषाः= उषा की बेला के, (न) इव = समान, (नमसा) सत्कारेण=सत्कार से, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (भर) धर=धारण करो ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों के लिये जैसे प्रातःकाल सारे अन्धकार का निवारण करके सबको प्रकाश से आनन्दित करता है, वैसे ही अन्याय के विनाशक, गुणों की अधिकता से प्रशंसित, सत्कार किया हुए को संग्राम आदि के व्यवहार में स्थापन करें। जैसे दिशा के व्यवहार को प्रचारित करते हैं, वैसे ही जो विद्या उत्तम शिक्षा, सेना, विनय, न्याय आदि से सबको सुभूषित करके धन अन्न आदि से संयुक्त करके सुखी करें। उसी को सभा आदि अधिकारों में प्रधान कर्त्तव्य करना चाहिए ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्यः) मनुष्य ! (त्वम्) तुम (यस्य) सूक्त के [पहले दो मन्त्रों में] कहे गये [गुणों के अनुसार जो गुण] (धाम) विद्या आदि सुख को धारण और प्राप्त करनेवाले, (श्रवसे) सुनने और अन्न के लिये (अस्ति) है, (येन) जिससे (अयसे) विशेष ज्ञान के लिये (हरितः) दिशा के (न) समान, (येन) जिसके द्वारा (नाम) प्रसिद्धि, (इन्द्रियम्) प्रशंसनीय बुद्धि या आँखों आदि से (ज्योतिः) न्याय और विनय का प्रचार (अकारि) किया जाता है। (अस्मै) सभा आदि के अध्यक्ष के लिये और (भीमाय) भयंकर दुष्टों के लिये, (पनीयसे) स्तुति करने के योग्य यथायोग्य व्यवहार करते हुए (शुभ्रे) सुन्दर सुख में और (अध्वरे) अहिंसनीय धार्मिक यज्ञ में (उषः) उषा की बेला के (न) समान (नमसा) सत्कार करते हुए, (सम्) अच्छी तरह से, (आ) हर ओर से (भर) धारण करो ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभाध्यक्षाय (भीमाय) दुष्टानां भयंकराय (नमसा) सत्कारेण (सम्) सम्यगर्थे (अध्वरे) अहिंसनीये धर्मे यज्ञे (उषः) उषाः। अत्र सुपाम् इति विभक्तेर्लुक्। (न) इव (शुभ्रे) शोभमाने सुखे (आ) समन्तात् (भर) धर (पनीयसे) यथायोग्यं व्यवहारं कुर्वते स्तोतुमर्हाय (यस्य) उक्तार्थस्य (धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिंस्तत् (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (नाम) प्रख्यातिः (इन्द्रियम्) प्रशस्तं बुद्ध्यादिकं चक्षुरादिकं वा (ज्योतिः) न्यायविनयप्रचारकम् (अकारि) क्रियते (हरितः) दिशः (न) इव (अयसे) विज्ञानाय। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) ॥ ३ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्य ! त्वं यस्य धाम श्रवसेऽस्ति येनायसे हरितो न येन नामेन्द्रियं ज्योतिररकारि क्रियतेऽस्मै भीमाय पनीयसे शुभ्र अध्वर उषो न प्रातःकाल इव नमसा समाभर ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा प्रातःकालः सर्वान्धकारं निवार्य सर्वान् प्रकाश्याह्लादयति तथैव अन्यायविनाशको गुणाधिक्येन प्रशंसितः सत्कृत्य संग्रामादिव्यवहारे संस्थाप्यः। यथा दिशो व्यवहारं प्रज्ञापयन्ति तथैव विद्यासुशिक्षासेनाविनयन्यायानुष्ठानादिना सर्वान् भूषयित्वा धनान्नादिभिः संयोज्य सततं सुखयेत्। स एव सभाद्यधिकारे प्रधानः कर्त्तव्यः ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा प्रातःकाळ सर्व अंधकाराचे निवारण करून सर्वांना प्रकाशाने आनंदित करतो, तसेच शत्रूंना भयभीत करणाऱ्या माणसाला, गुणांचे आधिक्य असलेल्याला, स्तुती, सत्कार, संग्राम इत्यादी व्यवहारात स्थित करावे. जशी दिशा व्यवहार जाणवून देणारी असते. तसेच जो विद्या, उत्तम शिक्षण, सेना, विनय, न्याय इत्यादींनी सर्वांना सुभुषित करून धन, अन्न इत्यादीने संयुक्त करून सुखी करतो. त्यालाच सभा इत्यादीमध्ये सर्व माणसांनी अधिकार दिला पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O man of knowledge, come to the auspicious yajna like the glorious dawn bearing gifts of food power and energy for this awful lord of majesty and charity, whose house, famous for gold and chant of the Word, emanates the light and power of science and knowledge as the spaces in the morning reflect the light and glory of the dawn.
Subject of the mantra
Then, how should that Chairman of the Assembly be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyaḥ) =human, (tvam) =you, (yasya) =of hymn, [pahale do mantroṃ meṃ]=in first two mantras, said, [guṇoṃ ke anusāra jo guṇa]=according to the qualities which, (dhāma) =those who possess and attain happiness like knowledge etc., (śravase)= to listen and food, (asti) =is, (yena) =like, (ayase)=for special knowledge, (haritaḥ) =of direction, (na) =like, (yena) =by whom, (nāma) = fame, (indriyam) =with admirable intelligence or eyes etc., (jyotiḥ)=promotion of justice and modesty, (akāri)=is done. (asmai) =for the Chairman of the Assembly and,(bhīmāya) =for the terrible wicked, (panīyase)=behaving in a manner worthy of praise, (śubhre)=in beautiful happiness and, (adhvare)= in non-violent righteous yajna, (uṣaḥ)= at daw, (na) =like (namasā) =with hospitality, (sam) =properly, (ā) =from all sides, (bhara) =possess.
English Translation (K.K.V.)
O human! According to the qualities mentioned in the first two mantras of the hymn, the qualities which are for the one who possesses and attains pleasures like knowledge etc., for hearing and food, which are like direction for special knowledge, through which fame, praiseworthy intelligence or justice through eyes etc. and modesty is preached. Possess it well, from all sides, for the Chairman of the assembly etc. and for the terrible wicked people, behaving in a manner worthy of praise, in beautiful happiness and in a non-violent righteous sacrifice, giving respect like the hour of dawn.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. For human beings, just as the morning dispels all darkness and makes everyone happy with light, in the same way, establish the destroyer of injustice, the one who is praised and honoured with abundance of qualities, in the behaviour of fighting etc. Just as we propagate the behaviour of direction, similarly we should make everyone happy by beautifying them with knowledge, good education, army, modesty, justice etc. associated with wealth and food etc. He should perform the main duties in the rights of Assembly et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is taught further in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man, come with due respect to the formidable, praise deserving Indra (Commander of the Army) who is terrible for the wicked and whose splendor giving the happiness of knowledge is for renown and acquisition of food and who like the Dawn dispels all darkness of ignorance and injustice and awakens light which illuminates justice and humility for gaining knowledge in all directions in non-violent Dharma (righteous acts) and Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिन तत् = Splendor which sustains the happiness of knowledge etc. (हरितः ) दिशः हरितः इति दिङनाम (निघ० १.६) = Directions.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint a very admirable virtuous person who sets aside all injustices the morning dispels all darkness, in charge of the battles as the Commander of the Army. They should appoint a person who adorns all with education, wisdom, army, humility and the observance of justice and who gladdens ali by providing wealth and food etc. as President of the Assembly.
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