ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
अ॒स्य शासु॑रु॒भया॑सः सचन्ते ह॒विष्म॑न्त उ॒शिजो॒ ये च॒ मर्ताः॑। दि॒वश्चि॒त्पूर्वो॒ न्य॑सादि॒ होता॒पृच्छ्यो॑ वि॒श्पति॑र्वि॒क्षु वे॒धाः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । शासुः॑ । उ॒भया॑सः । स॒च॒न्ते॒ । ह॒विष्म॑न्तः । उ॒शिजः॑ । ये । च॒ । मर्ताः॑ । दि॒वः । चि॒त् । पूर्वः॑ । नि । अ॒सा॒दि॒ । होता॑ । आ॒ऽपृच्छ्यः॑ । वि॒श्पतिः॑ । वि॒क्षु । वे॒धाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य शासुरुभयासः सचन्ते हविष्मन्त उशिजो ये च मर्ताः। दिवश्चित्पूर्वो न्यसादि होतापृच्छ्यो विश्पतिर्विक्षु वेधाः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। शासुः। उभयासः। सचन्ते। हविष्मन्तः। उशिजः। ये। च। मर्ताः। दिवः। चित्। पूर्वः। नि। असादि। होता। आऽपृच्छ्यः। विश्पतिः। विक्षु। वेधाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
विषय - वायु के दृष्टान्त से विजिगीषु राजा का वर्णन । पक्षा न्तर में परमेश्वर की स्तुति ।
भावार्थ -
(ये) जो (मर्त्ताः) मनुष्य (हविष्मन्तः) उत्तम अनादि ऐश्वर्यों और अधिकारों से सम्पन्न हैं और (ये च) जो मनुष्य ( उशिजः) धन की कामना करने हारे हैं। (उभयासः) वे दोनों राजा और प्रजा वर्ग (अस्य शासुः ) इस महान शासक अधीश्वर की (सचन्ते) शरण प्राप्त करते हैं । वह (होता) सब सुखों और ऐश्वर्यों का दाता, राष्ट्र का वशीकर्ता (दिवःचित् पूर्वः) दिन के प्रारम्भ में सूर्य के समान (पूर्वः) सबसे मुख्य होकर (नि असादि) मुख्य पद पर स्थापित किया जाता है। वही (विश्पतिः) समस्त प्रजा का पालक और (वेधाः) न्याय विधान का कर्त्ता, शास्त्रज्ञ, मेधावी होकर (विक्षु) प्रजाओं के बीच में (आपृच्छ्यः) न्याय निर्णय आदि पूछने योग्य है । परमेश्वर के पक्ष में—उस महान् शासक प्रभु की शरण में धनाभिलाषी रंक और धनाढ्य राजा दोनों ही आते हैं। वह सूर्य के समान समस्त ज्ञानी और प्रकाशवान् सूर्यों से भी पूर्व विद्यमान रहा है । वह सब प्रजा का पालक, जगत् का विधाता होकर भी (आपृच्छ्यः) गुरुओं और ज्ञानियों से प्रश्न करके जानने योग्य है ।
टिप्पणी -
तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या । ऋ.९...॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-५ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । ३,५ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक पंक्ति: ।
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