ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
वह्निं॑ य॒शसं॑ वि॒दथ॑स्य के॒तुं सु॑प्रा॒व्यं॑ दू॒तं स॒द्योअ॑र्थम्। द्वि॒जन्मा॑नं र॒यिमि॑व प्रश॒स्तं रा॒तिं भ॑र॒द्भृग॑वे मात॒रिश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवह्नि॑म् । य॒शस॑म् । वि॒दथ॑स्य । के॒तुम् । सु॒प्र॒ऽअ॒व्य॑म् । दू॒तम् । स॒द्यःऽअ॑र्थम् । द्वि॒ऽजन्मा॑नम् । र॒यिम्ऽइ॑व । प्र॒ऽश॒स्तम् । रा॒तिम् । भ॒र॒त् । भृग॑वे । मा॒त॒रिश्वा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वह्निं यशसं विदथस्य केतुं सुप्राव्यं दूतं सद्योअर्थम्। द्विजन्मानं रयिमिव प्रशस्तं रातिं भरद्भृगवे मातरिश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठवह्निम्। यशसम्। विदथस्य। केतुम्। सुप्रऽअव्यम्। दूतम्। सद्यःऽअर्थम्। द्विऽजन्मानम्। रयिम्ऽइव। प्रऽशस्तम्। रातिम्। भरत्। भृगवे। मातरिश्वा ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - वायु के दृष्टान्त से विजिगीषु राजा का वर्णन । पक्षा न्तर में परमेश्वर की स्तुति ।
भावार्थ -
( मातरिश्वा) वायु जिस प्रकार ( वह्निम् ) अग्नि को (भृगवे भरत्) अधिक ताप से भून देने या परिपाक करने के लिए उसको अधिक प्रबल कर देता है, उसी प्रकार (मातरिश्वा) भूमि माता में शत्रु पर बल से आक्रमण करने वाला अथवा समृद्धि से बढ़ने वाला विजीगिषु राजा ( वह्निम् ) कार्यभार को उठा लेने में समर्थ , ( यशसम् ) अति यशस्वी, ( विदथस्य केतुम् ) ज्ञान के जानने हारे अथवा जानने और जनाने योग्य पदार्थों के स्वयं जानने और औरों को जनाने में कुशल, ( सु प्राव्यम् ) उत्तम रक्षक या उत्तम रीति से और सुखपूर्वक कार्य के संचालन करने हारे ( दूतम् ) दूत के समान संदेशहर, (सद्यो अर्थम् ) शीघ्र ही स्थानास्तर में जाने में समर्थ ( द्विजन्मानम् ) द्विज, माता पिता और आचार्य से उत्पन्न, (रयिम् इव) ऐश्वर्य के समान ( प्रशस्तम् ) अति उत्तम, ( रातिम् ) दानशील मित्र, विद्वान् को भी (भृगवे) शत्रु को सन्तप्त करने के लिए (भरत् ) पुष्ट करे । अग्नि प्रकाशक होने से ‘केतु’ है, सन्तापक होने से ‘दूत’ है, अति वेग से विद्युत् रूप में देशान्तर में जाने से ‘सद्यो-अर्थ’ है । वायु तथा कारण रूप अग्नि तत्व दोनों से उत्पन्न होने से ‘द्विजन्मा’ है। इसी प्रकार (मातरिश्वा) परमेश्वर जीव को पालन पोषण करता है। वह जीव शरीर वहन करने से ‘वह्नि’, अन्न भोगने से ‘यशः’ है । ज्ञान प्राप्त करने से ‘संविदथ का केतु’ है, उपासक होने से ‘दूत’ है, उत्तम चेतनावान् होने से ‘सुप्राव्य’ है । माता पिता के संगजन्य होने से ‘द्विजन्मा’ है । वह ‘रयि’ सुवर्ण के समान तेजस्वी और प्राणप्रद होने से, ‘राति’ है । उसको परमेश्वर पापों के नाशक, ज्ञान के परिपाक या पुनः अभ्यास के लिए पालन पोषण करता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-५ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । ३,५ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक पंक्ति: ।
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