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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्च्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    हरी॒ यस्य॑ सु॒युजा॒ विव्र॑ता॒ वेरर्व॒न्तानु॒ शेपा॑ । उ॒भा र॒जी न के॒शिना॒ पति॒र्दन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरी॒ इति॑ । यस्य॑ । सु॒ऽयुजा॑ । विऽव्र॑ता । वेः । अर्व॑न्ता । अनु॑ । शेपा॑ । उ॒भा । र॒जी इति॑ । न । के॒शिना॑ । पतिः॑ । द॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरी यस्य सुयुजा विव्रता वेरर्वन्तानु शेपा । उभा रजी न केशिना पतिर्दन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरी इति । यस्य । सुऽयुजा । विऽव्रता । वेः । अर्वन्ता । अनु । शेपा । उभा । रजी इति । न । केशिना । पतिः । दन् ॥ १०.१०५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (यस्य वेः) जिस कान्तियुक्त तेजस्वी पुरुष के (विव्रता) विविध व्रताचरण करने वाले, (सु-युजा) उत्तम रीति से सत्कर्मों में लगने वाले, (अर्वन्ता) दो अश्वों के तुल्य (उभा) दोनों (केशिना) केशों के तुल्य तेजों से युक्त सूर्य चन्द्रवत् आकाश और पृथिवीवत् (रजी) सबको अनुरंजित करने वाले (शेपा) बलयुक्त, दृढ़ अंगों वाला है। (पतिः) वह स्वामी (दन्) सब कुछ देने वाला है। (२) सूर्यपक्ष में—उसके दोनों प्रकार के किरण (वि व्रता) विविध वर्षादि कर्म कराने वाले, विविध अन्नों के उत्पादक (रजी) सबको रंजित करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।

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