ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 5
ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्य॒ शश्व॑त्पपि॒वाँ इ॑न्द्र॒ शत्रू॑ननानुकृ॒त्या रण्या॑ च॒कर्थ॑ । स ते॒ पुरं॑धिं॒ तवि॑षीमियर्ति॒ स ते॒ मदा॑य सु॒त इ॑न्द्र॒ सोम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । शश्व॑त् । प॒पि॒ऽवान् । इ॒न्द्र॒ । शत्रू॑न् । अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्या । रण्या॑ । च॒कर्थ॑ । सः । ते॒ । पुर॑म्ऽधिम् । तवि॑षीम् । इ॒य॒र्ति॒ । सः । ते॒ । मदा॑य । सु॒तः । इ॒न्द्र॒ । सोमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य शश्वत्पपिवाँ इन्द्र शत्रूननानुकृत्या रण्या चकर्थ । स ते पुरंधिं तविषीमियर्ति स ते मदाय सुत इन्द्र सोम: ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । शश्वत् । पपिऽवान् । इन्द्र । शत्रून् । अननुऽकृत्या । रण्या । चकर्थ । सः । ते । पुरम्ऽधिम् । तविषीम् । इयर्ति । सः । ते । मदाय । सुतः । इन्द्र । सोमः ॥ १०.११२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु का वीर के समान स्मरण।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे तेजस्विन् ! हे शत्रुहन्तः ! अन्नादि के देने हारे, हे मेघादि के विदारण करने वाले सूर्य के तुल्य ! (यस्य पपिवान्) जिसका पान व पालन करके, तू (अननुकृत्या) न अनुकरण करने योग्य (रण्या) रण-क्रिया वा युद्धोपयोगी साधनों से (शत्रून् चकर्थ) शत्रुओं का नाश करता, वा (शत्रून्) शत्रुओं को लक्ष्य करके (अननुकृत्या रण्या चकर्थ) दूसरों से अनुकरण न करने योग्य, दुष्कर नाना रणकर्म करता है, वा (अननुकृत्या रण्या चकर्थ) न नाश करने या हर्षध्वनि से प्रकट करने योग्य अनेक कार्यों को सम्पन्न करता है (सः सोमः) वह सोम, ऐश्वर्य, (ते मदाय सुतः) तेरे हर्ष के लिये उत्पन्न है, वह (ते) तेरी (पुरन्धिम् तविषीम्) महान विश्व को पुर के समान धारण करने वाली बड़ी भारी शक्ति को (इयर्ति) बतलाता है। इस देह में सोन अन्न वा वीर्य जिस प्रकार आत्मा की देहधारिणी है शक्ति को प्रकट करता है उसी प्रकार सोम जगत् की उत्पादक और प्रेरक शक्ति को बतलाता और संचालित करता है। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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