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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी देवता - रात्रिस्तवः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ मा॒ पेपि॑श॒त्तम॑: कृ॒ष्णं व्य॑क्तमस्थित । उष॑ ऋ॒णेव॑ यातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । मा॒ । पेपि॑शत् । तमः॑ । कृ॒ष्णम् । विऽअ॑क्तम् । अ॒स्थि॒त॒ । उषः॑ । ऋ॒णाऽइ॑व । या॒त॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित । उष ऋणेव यातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । मा । पेपिशत् । तमः । कृष्णम् । विऽअक्तम् । अस्थित । उषः । ऋणाऽइव । यातय ॥ १०.१२७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    हे (उषः) प्रभात वेला के तुल्य कान्तियुक्त एवं पर-पक्ष को संतापित करने वाली ! सब प्रजाओं को चाहने वाली ! (पेपिशत्) मूर्त, होता हुआ, गाढ (कृष्णम्) काला, कष्टदायी, (वि अक्तम्) कान्ति तेज से रहित, (तमः) अन्धकारवत् खेद वा अज्ञान (आ उप अस्थित) मुझे प्राप्त हुआ है। उसे तू (ऋणा इव यातय) ऋणों के समान नष्ट कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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