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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी देवता - रात्रिस्तवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ ते॒ गा इ॒वाक॑रं वृणी॒ष्व दु॑हितर्दिवः । रात्रि॒ स्तोमं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ते॒ । गाःऽइ॒व । अ॒क॒र॒म् । वृ॒णी॒ष्व । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । रात्रि॑ । स्तोम॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः । रात्रि स्तोमं न जिग्युषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ते । गाःऽइव । अकरम् । वृणीष्व । दुहितः । दिवः । रात्रि । स्तोमम् । न । जिग्युषे ॥ १०.१२७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे (दिवः दुहितः) सूर्य की पुत्री उषा के समान तेज ज्ञान को देने वाली ! (ते) तेरी (गाः इव) रश्मियों के तुल्य नाना वाणियों को मैं (आ अकरम्) प्राप्त करूं। हे (रात्रि) सुख और ज्ञान देने वाली ! रात्रिवत् सुखप्रद ! मैं (जिग्युषे सोमं न) विजयशील के स्तुति वचन के समान (ते स्तोमं आ अकरम्) तेरी स्तुति करूं। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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