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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 131/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुकीर्तिः काक्षीवतः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न॒हि स्थूर्यृ॑तु॒था या॒तमस्ति॒ नोत श्रवो॑ विविदे संग॒मेषु॑ । ग॒व्यन्त॒ इन्द्रं॑ स॒ख्याय॒ विप्रा॑ अश्वा॒यन्तो॒ वृष॑णं वा॒जय॑न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । स्थूरि॑ । ऋ॒तु॒ऽथा । या॒तम् । अस्ति॑ । न । उ॒त । श्रवः॑ । वि॒वि॒दे॒ । स॒म्ऽग॒मेषु॑ । ग॒व्यन्तः॑ । इन्द्र॑म् । स॒ख्याय॑ । विप्राः॑ । अ॒श्व॒ऽयन्तः॑ । वृष॑णम् । वा॒जऽय॑न्तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु । गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । स्थूरि । ऋतुऽथा । यातम् । अस्ति । न । उत । श्रवः । विविदे । सम्ऽगमेषु । गव्यन्तः । इन्द्रम् । सख्याय । विप्राः । अश्वऽयन्तः । वृषणम् । वाजऽयन्तः ॥ १०.१३१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 131; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (स्थूरि) एक बैल वाली, या स्थिर बैल रहित गाड़ी (ऋतु-था) ठीक २ समय पर मार्गों में या चक्रों पर भी जिस प्रकार (यातम् न अस्ति) जाने योग्य नहीं होती उसी प्रकार ऋतु-कालों में भी (स्थूरि) एक व्यक्ति से ही गृहस्थ की गाड़ी नहीं चलती। अर्थात् गाड़ी के लिये दो बैलों के समान गृहस्थ रथ के लिये भी दो उत्तम स्त्री, पुरुष, और राज्य के लिये दो, राजा और सचिव चाहियें। (उत) और (संगमेषु) संग्रामों वा मिलापों में भी (श्रवः न विविदे) अन्न, यश, कीर्त्ति, ज्ञान का लाभ नहीं होता जब तक इन्द्र अर्थात् मेघ, सूर्य, उत्तम ज्ञानवान् वीर्यवान् पुरुष प्रयोक्ता नहीं। इसलिये (विप्राः) विद्वान् लोग (गव्यन्तः) गौ, बैल, भूमि और ज्ञान-वाणी की कामना करते हुए और (अश्वयन्तः) संग्रामार्थ अश्व और अश्ववत् कार्यवाहक समर्थ पुरुष की इच्छा करते हुए और (वाजयन्तः) बल, ऐश्वर्य, ज्ञान और वेग की कामना करते हुए, (वृषणम् इन्द्रम्) बलवान्, विद्युत्वत् जलवर्षी मेघवत् और वीर्य से पुरुषवत् सुखों की वर्षा करने वाले स्वामीवत् प्रभु को (सख्याय) मित्रभाव के लिये चाहते हैं। उसकी शरण में आते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः सुकीर्तिः काक्षीवतः॥ देवता–१– ३, ६, ७ इन्द्रः। ४, ५ अश्विनौ। छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, ७ पाद-निचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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