ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 131/ मन्त्र 4
ऋषिः - सुकीर्तिः काक्षीवतः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यु॒वं सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑ । वि॒पि॒पा॒ना शु॑भस्पती॒ इन्द्रं॒ कर्म॑स्वावतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । सु॒राम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । नमु॑चौ । आ॒सु॒रे । सचा॑ । वि॒ऽपि॒पा॒ना । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । इन्द्र॑म् । कर्म॑ऽसु । आ॒व॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा । विपिपाना शुभस्पती इन्द्रं कर्मस्वावतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । सुरामम् । अश्विना । नमुचौ । आसुरे । सचा । विऽपिपाना । शुभः । पती इति । इन्द्रम् । कर्मऽसु । आवतम् ॥ १०.१३१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 131; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
विषय - जितेन्द्रिय गृहस्थ स्थिर पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (अश्विना) अश्ववत् उत्तम साधनों वाले, जितेन्द्रिय, स्त्री पुरुषो ! वा शास्य- शासक वर्गो ! आप दोनों (शुभः पती) शोभा-जनक अलंकारों वा गुणों के पालन करने वाले और (सचा) एक साथ परस्पर संगत होकर (नमुचौ आसुरे) न त्यागने योग्य, अवश्य धारणीय प्राणों के द्वारा प्राप्त जीवन के निमित्त (सुरामं विपिपाना) सुखपूर्वक आनन्द प्रमोद देने वाले अन्न जल वीर्य बल आदि का विविध प्रकार से पान और पालन करते हुए, आप दोनों (कर्मसु) अपने समस्त कर्मों में (इन्द्रम् आवतम्) उस महान् ऐश्वर्य के देने वाले स्वामी प्रभु को सदा प्रेम करो। शास्य और शासक वर्ग दोनों राजा की रक्षा करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः सुकीर्तिः काक्षीवतः॥ देवता–१– ३, ६, ७ इन्द्रः। ४, ५ अश्विनौ। छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, ७ पाद-निचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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