ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 140/ मन्त्र 3
ऊर्जो॑ नपाज्जातवेदः सुश॒स्तिभि॒र्मन्द॑स्व धी॒तिभि॑र्हि॒तः । त्वे इष॒: सं द॑धु॒र्भूरि॑वर्पसश्चि॒त्रोत॑यो वा॒मजा॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठऊर्जः॑ । न॒पा॒त् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । सु॒श॒स्तिऽभिः॑ । मन्द॑स्व । धी॒तिऽभिः॑ । हि॒तः । त्वे इति॑ । इषः॑ । सम् । द॒धुः॒ । भूरि॑ऽवर्पसः । चि॒त्रऽऊ॑तयः । वा॒मऽजा॑ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः । त्वे इष: सं दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाताः ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्जः । नपात् । जातऽवेदः । सुशस्तिऽभिः । मन्दस्व । धीतिऽभिः । हितः । त्वे इति । इषः । सम् । दधुः । भूरिऽवर्पसः । चित्रऽऊतयः । वामऽजाताः ॥ १०.१४०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 140; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
विषय - सर्वाश्रय, सर्वपालक प्रभु। पक्षान्तर में यज्ञाग्नि का वर्णन।
भावार्थ -
हे (जातवेदः) समस्त उत्पन्न पदार्थों और लोकों को जानने हारे ! हे समस्त ज्ञानों और ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! तू (ऊर्जः नपात्) बलों और अन्नों को कभी नष्ट नहीं होने देने वाला है। तू (सु-शस्तिभिः धीतिभिः) उत्तम शासनों और उत्तम कर्मों से (हितः) सर्वहितकारी, सर्वदाता होकर (मन्दस्य) स्वयं प्रसन्न तृप्त हो और कोइ भी पूर्ण काम कर। (भूरि-वर्पसः) नाना रूपों वाले, और (चित्र-ऊतयः) अद्भुत शक्तियों, ज्ञानों रक्षादि वाले, (वाम-जाताः) उत्तम रूप से प्रसिद्ध, जन (त्वे इषः) तेरे में ही अपनी नाना इच्छाओं और कामनाओं को (संदधुः) स्थापित करते हैं। (२) अग्नि के पक्ष में—जन तुझ में ही समस्त अन्नों की आहुति करते हैं। वे अन्न (भूरि-वर्पसः) नाना प्रकार के, (चित्र-ऊतयः) अद्भुत रूप से देह की रक्षा करने वाले और (वाम-जाताः) उत्तम उत्तम गुणों से युक्त हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिरग्निः पावकः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृत्पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्ति:। ५ संस्तारपंक्तिः॥ ६ विराट त्रिष्टुप्॥
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