ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 140/ मन्त्र 2
पा॒व॒कव॑र्चाः शु॒क्रव॑र्चा॒ अनू॑नवर्चा॒ उदि॑यर्षि भा॒नुना॑ । पु॒त्रो मा॒तरा॑ वि॒चर॒न्नुपा॑वसि पृ॒णक्षि॒ रोद॑सी उ॒भे ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒व॒कऽव॑र्चाः । शु॒क्रऽव॑र्चाः । अनू॑नऽवर्चाः । उत् । इ॒य॒र्षि॒ । भा॒नुना॑ । पु॒त्रः॑ । मा॒तरा॑ । वि॒ऽचर॑न् । उ॒प॑ । अ॒व॒सि॒ । पृ॒णक्षि॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥
स्वर रहित पद पाठपावकऽवर्चाः । शुक्रऽवर्चाः । अनूनऽवर्चाः । उत् । इयर्षि । भानुना । पुत्रः । मातरा । विऽचरन् । उप । अवसि । पृणक्षि । रोदसी इति । उभे इति ॥ १०.१४०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 140; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
विषय - माता पिता के तुल्य प्रभु का प्रजापालन।
भावार्थ -
हे अग्ने ! तू (पावक-वर्चाः) पवित्र करने वाले बल और तेज वाला, (शुक्र-वर्चाः) शुद्ध कान्तियुक्त तेज वाला होकर (भानुना) दीप्ति से (उत् इयर्षि) उत्तम पद को प्राप्त है। (पुत्रः मातरा विचरन् उप) पुत्र जिस प्रकार माता पिताओं की सेवा करता हुआ उनको स्नेह करता, उनको प्राप्त होता, उनकी रक्षा करता, उनको पालता है, उसी प्रकार तू भी (पुत्रः) बहुत से जीवों, लोकों, की रक्षा करने वाला होकर (उभे रोदसी) दोनों लोकों को (पृणक्षि) पालता और पूर्ण करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिरग्निः पावकः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृत्पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्ति:। ५ संस्तारपंक्तिः॥ ६ विराट त्रिष्टुप्॥
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