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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 144 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 144/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुपर्णस्तार्क्ष्यपुत्र ऊर्ध्वकृशनो वा यामायनः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    घृषु॑: श्ये॒नाय॒ कृत्व॑न आ॒सु स्वासु॒ वंस॑गः । अव॑ दीधेदही॒शुव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृषुः॑ । श्ये॒नाय॑ । कृत्व॑ने । आ॒सु । स्वासु॑ । वंस॑गः । अव॑ । दी॒धे॒त् । अ॒ही॒शुवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृषु: श्येनाय कृत्वन आसु स्वासु वंसगः । अव दीधेदहीशुव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृषुः । श्येनाय । कृत्वने । आसु । स्वासु । वंसगः । अव । दीधेत् । अहीशुवः ॥ १०.१४४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 144; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    वह (श्येनाय) प्रशंसनीय आचार वाले (कृत्वने) कर्म करने वाले पुरुष के उपकार के लिये (घृषुः) अति दीप्तयुक्त होकर (आसु स्वासु) इन अपनी ही वा इन आनन्दप्रद नाड़ियों में, प्रजाओं में राजा के तुल्य (वंसगः) सेवनीय सुन्दर रीति से व्याप्त होकर (अहीशुवः) अति उत्तम व्यापक शक्तियों वा प्राणों को (अवदीधेत्) चमकाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः सुपर्णस्तार्क्ष्यपुत्र ऊर्ध्वकृशनो वा यामायनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ३ निचृद्गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री। २ आर्ची स्वराड् बृहती। ५ सतोबृहती। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥

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