ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 147/ मन्त्र 3
ऐषु॑ चाकन्धि पुरुहूत सू॒रिषु॑ वृ॒धासो॒ ये म॑घवन्नान॒शुर्म॒घम् । अर्च॑न्ति तो॒के तन॑ये॒ परि॑ष्टिषु मे॒धसा॑ता वा॒जिन॒मह्र॑ये॒ धने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒षु॒ । चा॒क॒न्धि॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । सू॒रिषु॑ । वृ॒धासः॑ । ये । म॒घ॒ऽव॒न् । आ॒न॒शुः । म॒घम् । अर्च॑न्ति । तो॒के । तन॑ये । परि॑ष्टिषु । मे॒धऽसा॑ता । वा॒जिन॑म् । अह्व॑ये । धने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐषु चाकन्धि पुरुहूत सूरिषु वृधासो ये मघवन्नानशुर्मघम् । अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एषु । चाकन्धि । पुरुऽहूत । सूरिषु । वृधासः । ये । मघऽवन् । आनशुः । मघम् । अर्चन्ति । तोके । तनये । परिष्टिषु । मेधऽसाता । वाजिनम् । अह्वये । धने ॥ १०.१४७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 147; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
विषय - बल, ज्ञान, ऐश्वर्य पुत्र पौत्र धन आदि के लिये भी स्तुत्य प्रभु।
भावार्थ -
हे (पुरुहूत) बहुतसी प्रजाओं द्वारा बुलाये राजावत् प्रभो ! (ये) जो (वृधासः) बढ़ने हारे विद्वान् जन (मघम् आनशुः) उत्तम दान योग्य धन सम्पदा को प्राप्त कर लेते हैं (एषु) उन (सूरिषु) विद्वान् तेजस्वी पुरुषों में तू (आ चाकन्धि) सर्वप्रकार से चमकता है, उनको तू नित्य चाहता है। हे (मघवन्) पूजित धनैश्वर्य के स्वामिन् ! वे लोग (वाजिनम्) बल, ज्ञान, वेग तथा ऐश्वर्य के स्वामी तुझको ही, (तोके तनये) पुत्र, पौत्र तथा (परिष्टिषु) नाना अन्य वाञ्छनीय फलों को प्राप्त करने के लिये और (मेघ-साता) अन्न के समान लाभ, कृषि आदि के लिये और (आ ह्रये धने) लज्जा को दूर करने वाले धन को प्राप्त करने के लिये (अर्चन्ति) तेरी स्तुति पूजा करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः सुवेदाः शैरीशिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ विराट् जगती। २ आर्ची भुरिग् जगती। ३ जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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