ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 150/ मन्त्र 1
समि॑द्धश्चि॒त्समि॑ध्यसे दे॒वेभ्यो॑ हव्यवाहन । आ॒दि॒त्यै रु॒द्रैर्वसु॑भिर्न॒ आ ग॑हि मृळी॒काय॑ न॒ आ ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धः । चि॒त् । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒व्य॒ऽवा॒ह॒न॒ । आ॒दि॒त्यैः । रु॒द्रैः । वसु॑ऽभिः । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । मृ॒ळी॒काय॑ । नः॒ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धश्चित्समिध्यसे देवेभ्यो हव्यवाहन । आदित्यै रुद्रैर्वसुभिर्न आ गहि मृळीकाय न आ गहि ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धः । चित् । सम् । इध्यसे । देवेभ्यः । हव्यऽवाहन । आदित्यैः । रुद्रैः । वसुऽभिः । नः । आ । गहि । मृळीकाय । नः । आ । गहि ॥ १०.१५०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 150; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि। सर्वोपसित प्रभु से सुख की प्रार्थना।
भावार्थ -
हे (हव्य-वाहन) हव्य, खाने और देने योग्य पदार्थों को वहन, धारण करनेहारे, प्रभो ! तू (देवेभ्यः सम् इद्ध्यसे) यज्ञाग्निवत विद्वानों और शुभ गुणों वा समस्त सूर्य पृथिवी आदि लोकों के लिये (आदित्यैः रुद्रैः वसुभिः) प्रपितामहों, पितामहों और पिताओं से भी (समिद्धः चित्) आदर पूर्वक प्रज्वलित, उपासित है, तू सुख देने के लिये हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिमृळीको वासिष्ठः। अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४ उपरिष्टाज्ज्योतिर्नाम जगती वा। ५ उपरिष्टाज्ज्योतिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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