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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 1
    ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निं हि॑न्वन्तु नो॒ धिय॒: सप्ति॑मा॒शुमि॑वा॒जिषु॑ । तेन॑ जेष्म॒ धनं॑धनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । हि॒न्व॒न्तु॒ । नः॒ । धियः॑ । सप्ति॑म् । आ॒शुम्ऽइ॑व । आ॒जिषु॑ । तेन॑ । जे॒ष्म॒ । धन॑म्ऽधनम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं हिन्वन्तु नो धिय: सप्तिमाशुमिवाजिषु । तेन जेष्म धनंधनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । हिन्वन्तु । नः । धियः । सप्तिम् । आशुम्ऽइव । आजिषु । तेन । जेष्म । धनम्ऽधनम् ॥ १०.१५६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (नः धियः) हमारे कर्म और हमारी बुद्धियां (वाजिषु आशुम् इव) ज्ञान, बल ऐश्वर्यादि से सम्पन्नों के बीच वेग, क्रिया-सामर्थ्य से सम्पन्न (सप्तिम् अग्निम्) सातों प्राणों के स्वामी, ज्ञानवान्, तेजस्वी पुरुष को (हिन्वन्तु) उद्योग से युक्त करें, उसको प्रेरित करें। (तेन) उससे (धनं-धनं जेष्म) प्रत्येक धन का विजय करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः केतुराग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ५ गायत्री। २, ४ निचृद् गायत्री॥

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