ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 155/ मन्त्र 5
ऋषिः - शिरिम्बिठो भारद्वाजः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परी॒मे गाम॑नेषत॒ पर्य॒ग्निम॑हृषत । दे॒वेष्व॑क्रत॒ श्रव॒: क इ॒माँ आ द॑धर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒मे । गाम् । अ॒ने॒ष॒त॒ । परि॑ । अ॒ग्निम् । अ॒हृ॒ष॒त॒ । दे॒वेषु । अ॒क्र॒त॒ । श्रवः॑ । कः । इ॒मान् । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परीमे गामनेषत पर्यग्निमहृषत । देवेष्वक्रत श्रव: क इमाँ आ दधर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इमे । गाम् । अनेषत । परि । अग्निम् । अहृषत । देवेषु । अक्रत । श्रवः । कः । इमान् । आ । दधर्षति ॥ १०.१५५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 155; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
विषय - अजेय वीर।
भावार्थ -
(इमे गाम् परि अनेषत) ये वीर जन भूमि के सर्वत्र स्थानों पर जावें। (अग्निम् परि अहृषत) अपने अग्रणी वा ज्ञानी नायक को प्राप्त कर खूब प्रसन्न हों, उसकी सेवा करें। (देवेषु श्रवः अकृत) विद्वानों, वीरों के अधीन रहकर ज्ञान और अन्न को उत्पन्न करें तब (कः इमान आ दधर्षति) कौन इनको परास्त कर सकता है ? इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः शिरिम्बिठा भारद्वाजः॥ देवता—१, ४ अलक्ष्मीघ्नम्। २, ३ ब्रह्मणस्पतिः। ५ विश्वेदेवाः॥ छन्द:- १, २, ४ निचृदनुष्टुप्। ३ अनुष्टुप्। ५ विराडनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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