ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 13
यं त्वम॑ग्ने स॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा॑पया॒ पुन॑: । कि॒याम्ब्वत्र॑ रोहतु पाकदू॒र्वा व्य॑ल्कशा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽअद॑हः । तम् । ऊँ॒ इति॑ । निः । वा॒प॒य॒ । पुन॒रिति॑ । कि॒याम्बु॑ । अत्र॑ । रो॒ह॒तु॒ । पा॒क॒ऽदू॒र्वा । विऽअ॑ल्कशा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वमग्ने समदहस्तमु निर्वापया पुन: । कियाम्ब्वत्र रोहतु पाकदूर्वा व्यल्कशा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वम् । अग्ने । सम्ऽअदहः । तम् । ऊँ इति । निः । वापय । पुनरिति । कियाम्बु । अत्र । रोहतु । पाकऽदूर्वा । विऽअल्कशा ॥ १०.१६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
विषय - तड़नापूर्वक शिष्य को ज्ञान, आचार और सदु-गुणों का आश्रय बनाने का उपदेश।
भावार्थ -
जिस प्रकार अग्नि जिस स्थान पर घास को जला देता है उसको भस्म कर देने पर वह स्वयं शान्त होकर बाद में और भी अधिक घास उत्पन्न होने का कारण बनता है उसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञान के प्राप्त कराने वाले ! उपदेष्टः ! गुरो ! (त्वं) तू (यम्) जिस शिष्य को (सम् अदहः) अग्निवत् संतप्त करे। (तम् उ) उसको ही (पुनः) कालान्तर में वा बार २ (निर्वापय) जल के समान शीतल दयार्द्र होकर, शान्त, अनुद्विग्न, सुखी किया कर। (अत्र) उसमें (कियाम्बु) कितना अथाह जलवत् ज्ञानसागर (रोहतु) उत्पन्न हो और (पाक- दूर्वा) पकी दूब के समान (वि-अल्कशा) विविध शाखायुक्त वेद-विद्या (रोहतु) लता के समान उगे और बढ़े।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दमनो यामायन ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् १, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ६,९ त्रिष्टुप्। १० स्वराट त्रिष्टुप्। ११ अनुष्टुप्। १२ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्च सूक्तम्॥ १३, १४ विराडनुष्टुप्॥
इस भाष्य को एडिट करें