ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 163/ मन्त्र 5
ऋषिः - विवृहा काश्यपः
देवता - यक्ष्मघ्नम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मेह॑नाद्वनं॒कर॑णा॒ल्लोम॑भ्यस्ते न॒खेभ्य॑: । यक्ष्मं॒ सर्व॑स्मादा॒त्मन॒स्तमि॒दं वि वृ॑हामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठमेह॑नात् । व॒न॒म्ऽकर॑णात् । लोम॑ऽभ्यः । ते॒ । न॒खेभ्यः॑ । यक्ष्म॑म् । सर्व॑स्मात् । आ॒त्मनः॑ । तम् । इ॒दम् । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्य: । यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठमेहनात् । वनम्ऽकरणात् । लोमऽभ्यः । ते । नखेभ्यः । यक्ष्मम् । सर्वस्मात् । आत्मनः । तम् । इदम् । वि । वृहामि । ते ॥ १०.१६३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 163; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
विषय - रोगी के आंख, नाक, कान, ठुड्डी, मस्तिष्क, बाहु, धमनियों, और अस्थियों गुदा, आंतों, आदि पेट के भीतरी अंगों से और जांघों, पैरों, टांगों, एड़ियों, पंजों, नितम्बों से, मूत्र, मलादि द्वारों और अन्य अनेक जोड़ों से राजयक्ष्मादि नाश करने का उपदेश।
भावार्थ -
हे रोगी ! (वनं-करणात् मेहनात्) जल पैदा करने वाले मूत्रकारी और शुक्रसेचक मूल-इन्द्रिय से (ते लोमभ्यः नखेभ्यः) तेरे लोमों और नखों से, और (सर्वस्मात् ते आत्मनः) तेरे समस्त देह से (ते तम् इदं वि वृहामि) तेरे इस प्रकार के उस समस्त रोग को दूर करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिविंवृहा काश्यपः॥ देवता यक्ष्मध्नम्॥ छन्द:- १, ६ अनुष्टुप्। २-५ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
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