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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 167 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 167/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वामित्रजमदग्नी देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    प्रसू॑तो भ॒क्षम॑करं च॒रावपि॒ स्तोमं॑ चे॒मं प्र॑थ॒मः सू॒रिरुन्मृ॑जे । सु॒ते सा॒तेन॒ यद्याग॑मं वां॒ प्रति॑ विश्वामित्रजमदग्नी॒ दमे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽसू॑तः । भ॒क्षम् । अ॒क॒र॒म् । च॒रौ । अपि॑ । स्तोम॑म् । च॒ । इ॒मम् । प्र॒थ॒मः । सू॒रिः । उत् । मृ॒जे॒ । सु॒ते । सा॒तेन॑ । यदि॑ । आ । अग॑मम् । वा॒म् । प्रति॑ । वि॒श्वा॒मि॒त्र॒ज॒म॒द॒ग्नी॒ इति॑ । दमे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रसूतो भक्षमकरं चरावपि स्तोमं चेमं प्रथमः सूरिरुन्मृजे । सुते सातेन यद्यागमं वां प्रति विश्वामित्रजमदग्नी दमे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽसूतः । भक्षम् । अकरम् । चरौ । अपि । स्तोमम् । च । इमम् । प्रथमः । सूरिः । उत् । मृजे । सुते । सातेन । यदि । आ । अगमम् । वाम् । प्रति । विश्वामित्रजमदग्नी इति । दमे ॥ १०.१६७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 167; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (विश्वामित्र-जमदग्नी) सबको स्नेह करने वाले ! हे प्रज्वलित अग्नि, अर्थात् ज्ञान से ज्वलित आत्मा वाले श्रेष्ठ जनो ! (यदि) जब भी मैं (बाद में) आपके गृह में, वा आपके दमन या शासन में (आगमम्) आऊं तो (सातेन) सेवनीय ज्ञान से (सुते) स्नात, परिष्कृत आत्मा में मैं (प्रथमः सूरिः सन्) सबसे उत्तम विद्वान् होकर (इमं स्तोमं उत् मृजे) इस स्तुति-वचनयुक्त वेदज्ञान का वा स्तुत्य पद आत्मा का ही उन्मार्जन, परिशोधन कर उसका स्वच्छ रूप से दर्शन करूं। और (चरौ अपि) आचरणीय मार्ग और भोक्तव्य पदार्थ के रहते हुए भी (प्रसूतः) शुभ मार्ग में प्रेरित होकर ही (भक्षम् अकरम्) भजन, भोजन या सेवन करूं। सर्वथा आप दोनों के अधीन रहूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः विश्वामित्रजमदग्नी॥ देवता—१, २, ४ इन्द्रः। ३ लिङ्गोक्ताः॥ छन्दः—१ आर्चीस्वराड् जगती। २, ४ विराड् जगती। ३ जगती॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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