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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरण्यूः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अपा॑गूहन्न॒मृतां॒ मर्त्ये॑भ्यः कृ॒त्वी सव॑र्णामददु॒र्विव॑स्वते । उ॒ताश्विना॑वभर॒द्यत्तदासी॒दज॑हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒गू॒ह॒न् । अ॒मृता॑म् । मर्त्ये॑भ्यः । कृ॒त्वी । सऽव॑र्णाम् । अ॒द॒दुः॒ । विव॑स्वते । उ॒त । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भ॒र॒त् । यत् । तत् । आसी॑त् । अज॑हात् । ऊँ॒ इति॑ । द्वा । मि॒थु॒ना । स॒र॒ण्यूः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वी सवर्णामददुर्विवस्वते । उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अगूहन् । अमृताम् । मर्त्येभ्यः । कृत्वी । सऽवर्णाम् । अददुः । विवस्वते । उत । अश्विनौ । अभरत् । यत् । तत् । आसीत् । अजहात् । ऊँ इति । द्वा । मिथुना । सरण्यूः ॥ १०.१७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    जल, भूमि आदि तत्व उस (अमृतां) अविनाशिनी प्रकृति को (अप अगूहन्) अपने भीतर छिपा कर रखते हैं। वे (विवस्वते सवर्णाम्) विविध लोकों के स्वामी, परमेश्वर के समान वर्ण की, अव्यक्त, व्यापक प्रकृति को (कृत्वा) व्यक्त करके (मर्त्येभ्यः) मरणधर्मा जीव, प्राणियों के उपभोग के लिये (अददुः) प्रदान करते हैं। वह (सरण्यूः) सरणशील, गतिशील, विकृति को प्राप्त प्रकृति (द्वा मिथुना अजहात्) दो जोड़ों को उत्पन्न करती है (उत) (यत् तत् आसीत्) जो अव्यक्त रूप में थी वही (अश्विनौ अभरत्) आकाश और पृथ्वी को उत्पन्न करती है। यास्क के अनुसार—यह वाणी का वर्णन है। विवस्वान् उस प्रभु की (अमृतां) उस नित्य वाणी को विद्वान् गण (सवर्णां कृत्वा) वर्णों सहित करके (अप अगहून्) खोल २ कर वर्णन करते हैं और (मर्त्येभ्यः अददुः) मनुष्यों के हितार्थ प्रवचन द्वारा प्रदान करें। (यत् तत् आसीत्) वह जो परम ब्रह्म-ज्ञानमय वाणी है वह (अश्विनौ) विद्या में व्यापनशील, जितेन्द्रिय गुरु शिष्य दोनों को (अभरत्) धारणपोषण करती है। वह (सरण्यूः) गुरु से शिष्य को प्राप्त होने वाली वाणी, (द्वा मिथुना) दोनों जोड़ों को (अजहात्) उत्पन्न करती है। अर्थात् आगे भी इसी प्रकार गुरु से शिष्य-परम्परा चलती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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