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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 184/ मन्त्र 3
ऋषिः - त्वष्टा गर्भकर्त्ता विष्णुर्वा प्राजापत्यः
देवता - लिङ्गोत्ताः (गर्भार्थाशीः)
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
हि॒र॒ण्ययी॑ अ॒रणी॒ यं नि॒र्मन्थ॑तो अ॒श्विना॑ । तं त॒त गर्भं॑ हवामहे दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्ययी॒ इति॑ । अ॒रणी॒ इति॑ । यम् । निः॒ऽमन्थ॑तः । अ॒श्विना॑ । तम् । ते॒ । गर्भ॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना । तं तत गर्भं हवामहे दशमे मासि सूतवे ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्ययी इति । अरणी इति । यम् । निःऽमन्थतः । अश्विना । तम् । ते । गर्भम् । हवामहे दशमे मासि सूतवे ॥ १०.१८४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 184; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 42; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 42; मन्त्र » 3
विषय - दो अरणियों के तुल्य पति-पत्नी का अग्निवत् पुत्रोत्पादन का कार्य।
भावार्थ -
(यं) जिस (गर्भं) ग्रहण करने योग्य अपत्य-जनक गर्भ को (हिरण्णयी अरणी) हित और रमण योग्य सुख से युक्त दो अरणि काष्ठों के तुल्य परस्पर (अश्विना) संगत स्त्री पुरुष मिलकर (निर्मन्थतः) अग्नि के तुल्य बालक रूप से उत्पन्न करते हैं (तं) उस (ते गर्भं) तेरे गर्भस्थ सन्तान को हम (दशमे मासि सूतवे) दसवें मास में प्रसव होने के लिये (हवामहे) सब प्रकार से स्वीकार करें उसका यथोचित पालन-पोषण अपने पर सहें। इति द्वाचत्वारिंशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः स्वष्टा गर्भकतां विष्णुर्वा प्राजापत्यः॥ देवता—लिंगोक्ताः। गर्भार्थाशीः॥ छन्दः—१, २ अनुष्टुप्। ३ निचृदनुष्टुप्॥
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