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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 186/ मन्त्र 1
वात॒ आ वा॑तु भेष॒जं श॒म्भु म॑यो॒भु नो॑ हृ॒दे । प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठवातः॑ । आ । वा॒तु॒ । भे॒ष॒जम् । श॒म्ऽभु । मा॒यः॒ऽभु । नः॒ । हृ॒दे । प्र । नः॒ । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठवातः । आ । वातु । भेषजम् । शम्ऽभु । मायःऽभु । नः । हृदे । प्र । नः । आयूंषि । तारिषत् ॥ १०.१८६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 186; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
विषय - वायु। वायु के सदृश परमात्मा प्रभु का वर्णन।
भावार्थ -
(वातः) वह सर्वव्यापक, वायु के समान बलवान् प्रभु (भेषजम्) सब दुःखों का परम औषधि, (शं-भु) शान्तिदायक और (मयः-भु) सुखकारक होकर (नः आ वातु) हमें प्राप्त हो। (नः आयुषि प्र तारिषत्) हमें दीर्घ जीवन प्रदान करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः उलो वातायनः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः- १, २ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ तृचं सूक्तम्॥
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