ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
अधि॑ पुत्रोपमश्रवो॒ नपा॑न्मित्रातिथेरिहि । पि॒तुष्टे॑ अस्मि वन्दि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । पु॒त्र॒ । उ॒प॒म॒ऽश्र॒वः॒ । नपा॑त् । मि॒त्र॒ऽअ॒ति॒थेः॒ । इ॒हि॒ । पि॒तुः । ते॒ । अ॒स्मि॒ । व॒न्दि॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि पुत्रोपमश्रवो नपान्मित्रातिथेरिहि । पितुष्टे अस्मि वन्दिता ॥
स्वर रहित पद पाठअधि । पुत्र । उपमऽश्रवः । नपात् । मित्रऽअतिथेः । इहि । पितुः । ते । अस्मि । वन्दिता ॥ १०.३३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
विषय - प्रजारक्षक का अतिथिवत् आदर। पक्षान्तर में उपदेष्टा गुरु के अधीन ज्ञानप्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ -
हे (पुत्र) बहुत सी प्रजाओं के रक्षक ! हे (उपम-श्रवः) अति उत्तम ज्ञान के देने हारे गुरो ! हे (मित्रातिथेः नपात्) मित्र, स्नेही और अतिथिवत् स्वल्प काल के लिये तेरे गृह पर आने वाले को नीचे न गिरने देने हारे तू (अधि इहि) हम पर अधिवक्ता होकर विराज। (ते पितुः) पिता के समान तुझ पालक का मैं (वन्दिता अस्मि) अभिवादन, स्तुति, प्रार्थना आदि करने वाला हूं।
आचार्य पक्ष में जिसके (रथे) रमणीय उपदेश में मुझ को (तिस्रः हरितः) तीनों वेद वाणियाँ साधु मार्ग से ले जाती हैं उस (सहिस्र-दक्षिणे) हजारों को दक्षिण दिशा में बैठा कर उपदेश करने वाले उस गुरु के अधीन मैं (स्तत्रै) वेद का अध्ययन करूं।
टिप्पणी -
गुरु और शिष्य के परस्पर व्यवहार को इस सूक्त में उत्तम रीति से दर्शाया है। इसी प्रकार शौनक मुनि ऋक्-प्रातिशाख्य में लिखते हैं—
पारायणं वर्त्तयेद् ब्रह्मचारी गुरुः शिष्येभ्यस्तदनुव्रतेभ्यः।
अध्यासीनो दिशमेकां प्रशस्तां प्राचीमुदीचीमपराजितां वा॥
एकः श्रोता दक्षिणतो निषीदेद् द्वौ वा भूयांसस्तु यथावकाशम्।
ते ऽधीहि भो इत्यभिचोदयन्ति गुरुं शिष्या उपसंगृह्य सर्वे॥
अर्थ—गुरु स्वयं ब्रह्मचारी रहकर ब्रह्मचारी शिष्यों को वेद का अध्ययन करावे। प्राची, उदीची वा अपराजिता दिशा में स्वयं ऊंचे आसन पर विराजे। और दक्षिण में एक या दो श्रोता शिष्य, वा अधिक स्थान हो तो अधिक भी बैठें। वे सब शिष्य गुरु के चरणों में नमस्कार करके ‘अधीहि भोः’ ऐसी प्रार्थना करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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