ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान्
देवता - अक्षकितवनिन्दा
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒न्ये जा॒यां परि॑ मृशन्त्यस्य॒ यस्यागृ॑ध॒द्वेद॑ने वा॒ज्य१॒॑क्षः । पि॒ता मा॒ता भ्रात॑र एनमाहु॒र्न जा॑नीमो॒ नय॑ता ब॒द्धमे॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्ये । जा॒याम् । परि॑ । मृ॒श॒न्ति॒ । अ॒स्य॒ । यस्य॑ । अगृ॑धत् । वेद॑ने । वा॒जी । अ॒क्षः । पि॒ता । मा॒ता । भ्रात॑रः । ए॒न॒म् । आ॒हुः॒ । न । जा॒नी॒मः॒ । नय॑त । ब॒द्धम् । ए॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्ये जायां परि मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्य१क्षः । पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बद्धमेतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्ये । जायाम् । परि । मृशन्ति । अस्य । यस्य । अगृधत् । वेदने । वाजी । अक्षः । पिता । माता । भ्रातरः । एनम् । आहुः । न । जानीमः । नयत । बद्धम् । एतम् ॥ १०.३४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
विषय - जूएख़ोर की दुर्दशा। उसकी और इन्द्रिय लम्पट के गृहस्थ, स्त्री की भी दुर्दशा। सबकी किनारा-कशी।
भावार्थ -
जुआख़ोर की दुर्दशा। (यस्य वेदने) जिसके धन पर (वाजी अक्षः) बलवान् जुए का व्यसन (अगृधत्) ललचा जाता है (अस्य) उसकी (जायां) स्त्री को भी (अन्ये परि मृशन्ति) दूसरे, उसके शत्रु, पराये लोग हथियाते हैं। (पिता माता भ्रातरः एनम् आहुः) पिता माता भाई लोग भी उसको लक्ष्य कर कहते हैं कि (न जानीमः) हम इसे नहीं जानते, पहचानते कि कौन है ? (एतम् बद्धम्) इसको बांध कर (नयत) लेजाओ। वह चोरी, कर्जा आदि में जब दण्डभागी होता है तो उसके सगे भी उससे ऐसे किनारा किया करते हैं। (२) जिस पुरुष की इन्द्रियें काम्य सुख रूप स्त्रीसङ्ग, कुसंग, मद्यपानादि में धनको नाश करती हैं, उसकी स्त्री भी सुरक्षित नहीं रहती और पतित को सगे भी कीर्त्ति के नाश के भय से नहीं अपनाते।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
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