ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
त आ॑दित्या॒ आ ग॑ता स॒र्वता॑तये वृ॒धे नो॑ य॒ज्ञम॑वता सजोषसः । बृह॒स्पतिं॑ पू॒षण॑म॒श्विना॒ भगं॑ स्व॒स्त्य१॒॑ग्निं स॑मिधा॒नमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठते । आ॒दि॒त्याः॒ । आ । ग॒त॒ । स॒र्वता॑तये । वृ॒धे । नः॒ । य॒ज्ञम् । अ॒व॒त॒ । स॒ऽजो॒ष॒सः॒ । बृह॒स्पति॑म् । पू॒षण॑म् । अ॒श्विना॑ । भग॑म् । स्व॒स्ति । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त आदित्या आ गता सर्वतातये वृधे नो यज्ञमवता सजोषसः । बृहस्पतिं पूषणमश्विना भगं स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठते । आदित्याः । आ । गत । सर्वतातये । वृधे । नः । यज्ञम् । अवत । सऽजोषसः । बृहस्पतिम् । पूषणम् । अश्विना । भगम् । स्वस्ति । अग्निम् । सम्ऽइधानम् । ईमहे ॥ १०.३५.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - वृद्ध ज्ञानी पुरुषों से यज्ञ रक्षा की प्रार्थना और प्रभु से कल्याण याचना।
भावार्थ -
हे (आदित्याः) तेजस्वी ज्ञान, धन आदि के देने और स्वीकार करने वाले वा सूर्य-रश्मियों, सर्वोपकारक, आदित्य ब्रह्मचारी एवं वृद्ध पितामहादि के तुल्य पूज्य जनो ! (ते) वे आप लोग (सर्व-तातये) सब के कल्याण के लिये (आगत) आइये। आप लोग (स-जोषसः) प्रेम और स्नेह से युक्त होकर (नः वृधे) हमारी वृद्धि के लिये (यज्ञम् अवत) हमारे दिये अन्न, सेवा आदि और सत्संग यज्ञ आदि को भी प्रेम से स्वीकार करो, हमारे यज्ञ की रक्षा करो। (बृहस्पतिम्) बड़े राष्ट्र बल, ज्ञान और वाणी के पालक, (पूषणम्) सब के पोषक और वर्धक (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों, (भवं) ऐश्वर्यवान् और (समिधानम् अग्निम्) तेजस्वी, दीप्तिदायक, ज्ञानप्रकाशक, नायक, प्रभु गुरु से हम (स्वस्ति ईमहे) सुख, कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
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