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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इन्द्रो मुष्कवान् देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒स्मिन्न॑ इन्द्र पृत्सु॒तौ यश॑स्वति॒ शिमी॑वति॒ क्रन्द॑सि॒ प्राव॑ सा॒तये॑ । यत्र॒ गोषा॑ता धृषि॒तेषु॑ खा॒दिषु॒ विष्व॒क्पत॑न्ति दि॒द्यवो॑ नृ॒षाह्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मिन् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । पृ॒त्सु॒तौ । यश॑स्वति । शिमी॑ऽवति । क्रन्द॑सि । प्र । अ॒व॒ । सा॒तये॑ । यत्र॑ । गोऽसा॑ता । धृ॒षि॒तेषु॑ । खा॒दिषु॑ । विष्व॑क् । पत॑न्ति । दि॒द्यवः॑ । नृ॒ऽसह्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मिन्न इन्द्र पृत्सुतौ यशस्वति शिमीवति क्रन्दसि प्राव सातये । यत्र गोषाता धृषितेषु खादिषु विष्वक्पतन्ति दिद्यवो नृषाह्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मिन् । नः । इन्द्र । पृत्सुतौ । यशस्वति । शिमीऽवति । क्रन्दसि । प्र । अव । सातये । यत्र । गोऽसाता । धृषितेषु । खादिषु । विष्वक् । पतन्ति । दिद्यवः । नृऽसह्ये ॥ १०.३८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (इन्द्रः) सूर्य वा मेघ (यशस्वति शिमीवति) अन्न जल से युक्त, कर्मवान् वायु से युक्त अन्तरिक्ष में (पृत्सुतौ क्रन्दसि) सब प्राणियों के पालक अन्न के उत्पत्ति के लिये गर्जता है और (गो-साता) भूमि पर पड़ते हुए (खादिषु धृषितेषु) जलग्राही रश्मियों के असह्य तापवान् होने पर (दिद्यवः पतन्ति) चमकती बिजुलियें पड़ती हैं, उसी प्रकार (यत्र) जिस (गो-साता) भूमि आदि के लाभ करने के निमित्त (नृ-साह्ये) नायक वीर पुरुषों से विजय करने योग्य युद्ध में (धृषितेषु) बलात्कार करने वाले अति ढीठ, (खादिषु) एक दूसरे को खाजाने वाले शत्रुओं पर (दिद्यवः) चमचमाते, वा देह को खण्ड २ कर देने वाले अस्त्र-शस्त्र (पतन्ति) वेग से जाते हैं। (अस्मिन्) इस (पृत्सुतौ) नाना सेनादि सञ्चालन करने योग्य (यशस्वति) यशोदायक, (शिमीवति) नाना कर्मों वाले युद्ध में हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाशक, ऐश्वर्यवन् ! (नः क्रन्दसि) तू हमारे बीच मेघवत् गर्जता है, हमें (क्रन्दसि) बुलाता, आज्ञा देता है, वह तू (सातये) धनादि लाभ के लिये (नः प्र अव) हमारी खूब रक्षा कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इन्द्रो मुष्कवान् ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१, ५ निचृज्जगती। २ पाद निचृज्जगती। ३, ४, विराड् जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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