ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 12
आ वा॑मगन्त्सुम॒तिर्वा॑जिनीवसू॒ न्य॑श्विना हृ॒त्सु कामा॑ अयंसत । अभू॑तं गो॒पा मि॑थु॒ना शु॑भस्पती प्रि॒या अ॑र्य॒म्णो दुर्याँ॑ अशीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । अ॒ग॒न् । सु॒ऽम॒तिः । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । नि । अ॒श्वि॒ना॒ । हृ॒त्ऽसु । कामाः॑ । अ॒यं॒स॒त॒ । अभू॑तम् । गो॒पा । मि॒थु॒ना । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । प्रि॒याः । अ॒र्य॒म्णः । दुर्या॑न् । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हृत्सु कामा अयंसत । अभूतं गोपा मिथुना शुभस्पती प्रिया अर्यम्णो दुर्याँ अशीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । अगन् । सुऽमतिः । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । नि । अश्विना । हृत्ऽसु । कामाः । अयंसत । अभूतम् । गोपा । मिथुना । शुभः । पती इति । प्रियाः । अर्यम्णः । दुर्यान् । अशीमहि ॥ १०.४०.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - वर वधू को माता पिता आदि का उपदेश, वे अपनी कामनाओं पर नियन्त्रण रखें। शुभ कार्य, गुण आदि धारण करें।
भावार्थ -
हे (वाजिनीवसू) अन्न, धन उत्पन्न करने वाले स्वामी स्वामिनी और गृहस्थ में बसने और उसे बसाने वाले वर वधू जनो ! (वाम्) आप दोनों को (सुमतिः आ अगन्) उत्तम शुभ मति प्राप्त हो। हे (अश्विना) अश्ववत् इन्द्रियों के वश करने वाले विद्या और सुखों के भोक्ता स्त्रीपुरुषो ! (हृत्सु) हृदयों में (कामाः) नाना प्रकार की अभिलाषाएं (नि अयंसत) नियमपूर्वक उत्पन्न होवें। और तुम (गोपा) वाणी के रक्षक और परस्पर गृह के स्वामी स्वामिनी और (मिथुना) जोड़े और (शुभः पती) शुभ गुणों, धनों और सद्-विचारों के परिपालक वा पति पत्नी (अभूतम्) होकर रहो। और (प्रियाः) हम स्त्रियां अपने पतियों की प्यारी होकर (अर्यम्णः) स्वामी के (दुर्यान्) गृहों को (अशीमहि) प्राप्त हों और सुख भोग करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
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