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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒दमि॒त्था रौद्रं॑ गू॒र्तव॑चा॒ ब्रह्म॒ क्रत्वा॒ शच्या॑म॒न्तरा॒जौ । क्रा॒णा यद॑स्य पि॒तरा॑ मंहने॒ष्ठाः पर्ष॑त्प॒क्थे अह॒न्ना स॒प्त होतॄ॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । इ॒त्था । रौद्र॑म् । गू॒र्तऽव॑चाः । ब्रह्म॑ । क्रत्वा॑ । शच्या॑म् । अ॒न्तः । आ॒जौ । क्रा॒णा । यत् । अ॒स्य॒ । पि॒तरा॑ । मं॒ह॒ने॒ऽस्थाः । पर्ष॑त् । प॒क्थे । अह॑न् । आ । स॒प्त । होता॑ऋन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमित्था रौद्रं गूर्तवचा ब्रह्म क्रत्वा शच्यामन्तराजौ । क्राणा यदस्य पितरा मंहनेष्ठाः पर्षत्पक्थे अहन्ना सप्त होतॄन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । इत्था । रौद्रम् । गूर्तऽवचाः । ब्रह्म । क्रत्वा । शच्याम् । अन्तः । आजौ । क्राणा । यत् । अस्य । पितरा । मंहनेऽस्थाः । पर्षत् । पक्थे । अहन् । आ । सप्त । होताऋन् ॥ १०.६१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (गूर्त्त-वचाः) श्रमपूर्वक वेदवाणी का अभ्यासी पुरुष (इदम्) इस (इत्था) सत्य (रौद्रम् ब्रह्म) सब कष्टों को दूर करने वाले, उत्तम उपदेश वा ज्ञानप्रद वेदज्ञान का (शच्याम्) कर्म और वाणी में, (क्रत्वा) यज्ञ या बुद्धि द्वारा (आजौ अन्तः) विजय करने योग्य वा संघर्ष के अवसर में उपदेश करता है, तब (यत्) जो (अस्य) इसके (पितरा) माता और पिता (क्राणा) कार्य कर रहे हैं और (अस्य) इसके जो कार्य (मंहने-स्थाः) पूज्य पद पर विराजने वाले करते हैं उस में वह (पक्थे अहन्) पाक करने योग्य दिन में (सप्त होतॄन्) सात विद्वानों को (पर्षत्) पार करता या पूर्ण करता है अर्थात् वह पुरुष ही सातों होता यज्ञ कर्त्ताओं में ब्रह्मा का पद पूर्ण करता है। (२) मेघ (रौद्रं ब्रह्म क्रत्वा आजौ अन्तः करोति) रुद्र अर्थात् सब प्राणियों के दुःखों को दूर करने वाले अन्न अपने कर्म से पृथिवी पर उत्पन्न करता है जिसको कि उसके पिता भूमि और सूर्य दोनों उत्पन्न करते हैं और जिसको (मंहनेष्ठाः) दान कार्य में स्थित मरुद्गण वा कृषक आदि मनुष्य उत्पन्न करते हैं उसी अन्न को वह भी (पक्थे अहनि) पकने के दिन तक पालन करता है और उससे वह (सप्त होतॄन्) सातों प्राणों को (पर्षत्) पालन करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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