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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स इद्दा॒नाय॒ दभ्या॑य व॒न्वञ्च्यवा॑न॒: सूदै॑रमिमीत॒ वेदि॑म् । तूर्व॑याणो गू॒र्तव॑चस्तम॒: क्षोदो॒ न रेत॑ इ॒तऊ॑ति सिञ्चत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इत् । दा॒नाय॑ । दभ्या॑य । व॒न्वन् । च्यवा॑नः । सूदैः॑ । अ॒मि॒मी॒त॒ । वेदि॑म् । तूर्व॑याणः । गू॒र्तव॑चःऽतमः । क्षोदः॑ । न । रेतः॑ । इ॒तःऽऊ॑ति । सि॒ञ्च॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इद्दानाय दभ्याय वन्वञ्च्यवान: सूदैरमिमीत वेदिम् । तूर्वयाणो गूर्तवचस्तम: क्षोदो न रेत इतऊति सिञ्चत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । इत् । दानाय । दभ्याय । वन्वन् । च्यवानः । सूदैः । अमिमीत । वेदिम् । तूर्वयाणः । गूर्तवचःऽतमः । क्षोदः । न । रेतः । इतःऽऊति । सिञ्चत् ॥ १०.६१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (च्यवानः) गतिशील सूर्य, (दानाय) जलों के देने और (दभ्याय) मेघों कों शत्रुवत् छिन्न भिन्न करने के लिये (वन्वन्) मेघों को ताड़ता हुआ (सूदैः वेदिम् अमिमीत) क्षरणशील मेघों से पृथिवी को अन्न से सम्पन्न करता है। और (गूर्त-वचः-तमः) खूब गर्जना करता हुआ (तूर्व- याणः) शीघ्र गति से जाता हुआ (क्षोदः सिंचत्) जल वर्षाता है उसी प्रकार राजा प्रभु, विद्वान् (दानाय) प्रजाओं को सुख देने के लिये और (दभ्याय) दुष्टों के नाश करने के लिये (च्यवानः) शत्रुओं को पराजित करता हुआ (सः इत्) वह ही (सूदैः) हिंसाकारी शस्त्रों से (वेदिम्) भूमि को (अमिमीत) माप लेता है, उसे अपने वश करता है और (तूर्व-याणः) शीघ्रगामी रथों से (गूर्त्त-वचः-तमः) सर्वोपरि उद्यत शासन होकर (इतः-ऊती) एक स्थान पर ही रक्षा साधन करके (क्षोदः न रेतः सिंचत्) जल के तुल्य बल, धन, तेज को प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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