ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
क॒था क॒विस्तु॑वी॒रवा॒न्कया॑ गि॒रा बृह॒स्पति॑र्वावृधते सुवृ॒क्तिभि॑: । अ॒ज एक॑पात्सु॒हवे॑भि॒ॠक्व॑भि॒रहि॑: शृणोतु बु॒ध्न्यो॒३॒॑ हवी॑मनि ॥
स्वर सहित पद पाठक॒था । क॒विः । तु॒वि॒ऽरवा॑न् । कया॑ । गि॒रा । बृह॒स्पतिः॑ । व॒वृ॒ध॒ते॒ । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । अ॒जः । एक॑ऽपात् । सु॒ऽहवे॑भिः । ऋक्व॑ऽभिः । अहिः॑ । शृ॒णो॒तु॒ । बु॒ध्न्यः॑ । हवी॑मनि ॥
स्वर रहित मन्त्र
कथा कविस्तुवीरवान्कया गिरा बृहस्पतिर्वावृधते सुवृक्तिभि: । अज एकपात्सुहवेभिॠक्वभिरहि: शृणोतु बुध्न्यो३ हवीमनि ॥
स्वर रहित पद पाठकथा । कविः । तुविऽरवान् । कया । गिरा । बृहस्पतिः । ववृधते । सुवृक्तिऽभिः । अजः । एकऽपात् । सुऽहवेभिः । ऋक्वऽभिः । अहिः । शृणोतु । बुध्न्यः । हवीमनि ॥ १०.६४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
विषय - एक मात्र जगत्-कर्त्ता वेदवाणियों से स्तुत्य महान् प्रभु।
भावार्थ -
(तुवीरवान् कविः) नाना ज्ञानों वाला, बहुदर्शी विद्वान् (कयागिरा ववृधते) किस प्रकार की वाणी से वृद्धि को प्राप्त करता है। और (बृहस्पतिः) महान् विश्व, बड़े राष्ट्र का पालक (कया गिरा ववृधते) किस वाणी से बढ़ता है। (सु-वृक्तिभिः) उत्तम रीति से अज्ञान और शत्रुओं को दूर करने वाली वाणियों और सेनाओं से (एकपात् अजः) एक, अकेला, अद्वितीय ही जगत् या राष्ट्र को चलाने वाला, अकेला निर्भीक रण में जाने वाला, (अजः) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने में समर्थ वा जगत् का सञ्चालक, अजन्मा (सुहवेभिः ऋक्वभिः) उत्तम ज्ञानप्रद, वा उत्तम रीति से बुलाने योग्य ऋचायुक्त मन्त्रों वा अर्चनादि युक्त कर्मों से (ववृधते) वृद्धि को प्राप्त हैं, उसका गुणानुवाद होता है वह (अहिः) अभ्यागत अतिथि के तुल्य वा अचल सूर्य वा मेघ के तुल्य, (बुध्न्यः) अन्तरिक्षवत् सर्वोपरि विराजमान, सर्वाश्रय एवं (बुध्न्यः) बोध, ज्ञान प्राप्त करने वाला, (हवीमनि) आह्वान करने पर यज्ञादि में हमारे वचन श्रवण करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
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