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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वे॑ दे॒वाः स॒ह धी॒भिः पुरं॑ध्या॒ मनो॒र्यज॑त्रा अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः । रा॒ति॒षाचो॑ अभि॒षाच॑: स्व॒र्विद॒: स्व१॒॑र्गिरो॒ ब्रह्म॑ सू॒क्तं जु॑षेरत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वाः । स॒ह । धी॒भिः । पुर॑म्ऽध्या । मनोः॑ । यज॑त्राः । अ॒मृताः॑ । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । रा॒ति॒ऽसाचः॑ । अ॒भि॒ऽसाचः॑ । स्वः॒ऽविदः॑ स्वः॑ । गिरः॑ । ब्रह्म॑ । सु॒ऽउ॒क्तम् । जु॒षे॒र॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवाः सह धीभिः पुरंध्या मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः । रातिषाचो अभिषाच: स्वर्विद: स्व१र्गिरो ब्रह्म सूक्तं जुषेरत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे । देवाः । सह । धीभिः । पुरम्ऽध्या । मनोः । यजत्राः । अमृताः । ऋतऽज्ञाः । रातिऽसाचः । अभिऽसाचः । स्वःऽविदः स्वः । गिरः । ब्रह्म । सुऽउक्तम् । जुषेरत ॥ १०.६५.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् वा विद्यार्थीगण, (धीभिः सह) नाना बुद्धियों और कर्मों सहित, (पुरन्ध्या सह) नगर को धारण करने वाली विशेष बुद्धि और नीति सहित, (मनोः यजत्राः) मननशील मनुष्यगण के द्वारा पूज्य वा उनसे संगति करने वाले, उनके पूजक (अमृताः) दीर्घायु, (ऋत-ज्ञाः) सत्य विद्या के जानने वाले, (राति-साचः) दान को ग्रहण करने वाले, (अभि- साचः) सब प्रकार से संघ बना कर रहने वाले, (स्वः-विदः) सब प्रकार के ऐश्वर्य सुखों को जानने और प्राप्त कराने वाले, (स्वः-गिरः) सुख वा सब प्रकार की वाणियों में (सु-उक्तम्) उत्तम रीति से कहे, उपदिष्ट (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान को (जुषेरत) सेवन करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥

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