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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    प॒र्जन्या॒वाता॑ वृष॒भा पु॑री॒षिणे॑न्द्रवा॒यू वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । दे॒वाँ आ॑दि॒त्याँ अदि॑तिं हवामहे॒ ये पार्थि॑वासो दि॒व्यासो॑ अ॒प्सु ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र्जन्या॒वाता॑ । वृ॒ष॒भा । पु॒री॒षिणा॑ । इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । दे॒वान् । आ॒दि॒त्यान् । अदि॑तिम् । ह॒वा॒म॒हे॒ । ये । पार्थि॑वासः । दि॒व्यासः॑ । अ॒प्ऽसु । ये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्जन्यावाता वृषभा पुरीषिणेन्द्रवायू वरुणो मित्रो अर्यमा । देवाँ आदित्याँ अदितिं हवामहे ये पार्थिवासो दिव्यासो अप्सु ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर्जन्यावाता । वृषभा । पुरीषिणा । इन्द्रवायू इति । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । देवान् । आदित्यान् । अदितिम् । हवामहे । ये । पार्थिवासः । दिव्यासः । अप्ऽसु । ये ॥ १०.६५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (पर्जन्या वाता) मेघ और वायु ये दोनों (वृषभा) जल को बरसाने वाले और (पुरीषिणा) जल को धारण करने वाले होते हैं। ये दोनों ही (इन्द्र-वायू) इन्द्र और वायु नाम से हैं। और इसी प्रकार (वरुणः) श्रेष्ठ, (मित्रः) सर्वस्नेही, प्रजा को मरण से बचाने वाला, (अर्यमा) शत्रुओं का नियन्ता, न्यायकारी इन (देवान्) विद्वानों और (आदित्यान्) सूर्य की किरणों वा ऋतुओं के तुल्य उपकारक जनों और (अदितिम्) भूमि, सूर्यवत् जनों को भी (हवामहे) हम बतलाते हैं, (ये) जो (पार्थिवासः) इस पृथिवी पर भी विद्यमान है (ये दिव्यासः) और जो आकाश में भी हैं, (ये अप्सु) जो अन्तरिक्ष में भी है। अर्थात् ये देवगण स्थान-भेद और गुण-भेद से सर्वत्र परिभाषा रूप से कहे जाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥

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