ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 8
प॒रि॒क्षिता॑ पि॒तरा॑ पूर्व॒जाव॑री ऋ॒तस्य॒ योना॑ क्षयत॒: समो॑कसा । द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णाय॒ सव्र॑ते घृ॒तव॒त्पयो॑ महि॒षाय॑ पिन्वतः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒रि॒ऽक्षिता॑ । पि॒तरा॑ । पू॒र्व॒जाव॑री॒ इति॑ पूर्व॒ऽजाव॑री । ऋ॒तस्य॑ । योना॑ । क्ष॒य॒तः॒ । सम्ऽओ॑कसा । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वरु॑णाय । सव्र॑ते॒ इति॒ सऽव्र॑ते । घृ॒तऽव॑त् । पयः॑ । म॒हि॒षाय॑ । पि॒न्व॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परिक्षिता पितरा पूर्वजावरी ऋतस्य योना क्षयत: समोकसा । द्यावापृथिवी वरुणाय सव्रते घृतवत्पयो महिषाय पिन्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठपरिऽक्षिता । पितरा । पूर्वजावरी इति पूर्वऽजावरी । ऋतस्य । योना । क्षयतः । सम्ऽओकसा । द्यावापृथिवी इति । वरुणाय । सव्रते इति सऽव्रते । घृतऽवत् । पयः । महिषाय । पिन्वतः ॥ १०.६५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
विषय - आकाश, भूमि, वा सूर्य पृथिवीवत् पुत्रों के प्रति माता-पिता के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
जिस प्रकार (द्यावा पृथिवी) आकाश और भूमि वा सूर्यं और पृथिवी, (पूर्व-जावरी) सब से पूर्व उत्पन्न होकर (सम्-ओकसा) एक स्थान, अन्तरिक्ष में रहकर भी (परि-क्षिता) पृथक् रहते और (घृतवत् पयः पिन्वते) जलयुक्त पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करते हैं उसी प्रकार (पितरा) माता पिता और (पूर्व-जावरी) सन्तानों से पूर्व उत्पन्न एवं प्रसिद्ध हों, वे (समोकसा) एक स्थान पर रहते हुए (परि-क्षिता) खूब ऐश्वर्य युक्त होकर, (ऋतस्य योना क्षयतः) ऋत, सत्य व्यवहार के आश्रय होकर रहें। वे (स-व्रते) समान व्रत, कर्म, आचरण, अन्नादि करते हुए (महिषाय वरुणाय) अति सुख देने वाले, वरणीय पुत्रादि के लिये (घृतवत् पयः) जल, घृतादि से युक्त अन्न, दुग्धादि प्रदान करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
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