ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 7
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
दि॒वक्ष॑सो अग्निजि॒ह्वा ऋ॑ता॒वृध॑ ऋ॒तस्य॒ योनिं॑ विमृ॒शन्त॑ आसते । द्यां स्क॑भि॒त्व्य१॒॑प आ च॑क्रु॒रोज॑सा य॒ज्ञं ज॑नि॒त्वी त॒न्वी॒३॒॑ नि मा॑मृजुः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वक्ष॑सः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । वि॒ऽमृ॒शन्तः॑ । आ॒स॒ते॒ । द्याम् । स्क॒भि॒त्वी । अ॒पः । आ । च॒क्रुः॒ । ओज॑सा । य॒ज्ञम् । ज॒नि॒त्वी । त॒न्वि॑ । नि । म॒मृजुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवक्षसो अग्निजिह्वा ऋतावृध ऋतस्य योनिं विमृशन्त आसते । द्यां स्कभित्व्य१प आ चक्रुरोजसा यज्ञं जनित्वी तन्वी३ नि मामृजुः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवक्षसः । अग्निऽजिह्वाः । ऋतऽवृधः । ऋतस्य । योनिम् । विऽमृशन्तः । आसते । द्याम् । स्कभित्वी । अपः । आ । चक्रुः । ओजसा । यज्ञम् । जनित्वी । तन्वि । नि । ममृजुः ॥ १०.६५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - सूर्य की रश्मियों के तुल्य ज्ञानी पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ -
(दिवक्षसः) सूर्य में रहने वाले सूर्य के किरण आकाश में व्यापते हैं, वे (अग्नि-जिह्वाः) अग्नितत्व की बनी जीभों के समान हैं, वे ही (ऋत-वृधः) अन्न और तेज की वृद्धि करते हैं, वे (ऋतस्य योनिं) तेज के मूल स्थान सूर्य, जल के स्थान मेघ, समुद्रादि और अन्न के स्थान भूतल को (वि-मृशन्तः आसते) विविध रूपों से स्पर्श करते हैं। वे (द्यां स्कभित्वी) आकाश और पृथिवी को व्याप कर (ओजसा) अपने तेजोबल से (आपः आ चक्रुः) जलों को ग्रहण करते हैं वे फिर (यज्ञं जनित्वी) उसका दान करके (तन्वि) विस्तृत पृथिवी पर वा जीवों के देहों में (नि मामृजुः) अन्न को सुभूषित करते हैं। इसी प्रकार सज्जन भी (दिवक्षसः) ज्ञान को धारण करने वाले, (अग्निजिह्वाः) अग्नि के तुल्य जिह्वा से ही ज्ञान का प्रकाश करने वाले, (ऋत-वृधः) सत्य ज्ञान और सत्य व्यवहार को बढ़ाने वाले, वे (ऋतस्य योनिम्) ज्ञान, सत्य के परम मूल कारण शास्त्र-योनिरूप परम ब्रह्म तत्व को (विमृशन्तः आसते) विमर्श, विचार करते रहते हैं। वे (द्यां) ज्ञान-विद्या को थाम कर, अपने (ओजसा) तप से (अपः चक्रुः) नाना सत् कर्म करते हैं। (यज्ञं जनित्वी) परस्पर संगति, विद्यादान और यज्ञ करके (तन्वि निमामृजुः) देह में चन्दनादिवत् उस महान् यज्ञमय उपास्य प्रभु को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को उस विस्तृत प्रभु में देखकर अपने को शुद्ध करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
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