ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 7
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
दि॒वक्ष॑सो अग्निजि॒ह्वा ऋ॑ता॒वृध॑ ऋ॒तस्य॒ योनिं॑ विमृ॒शन्त॑ आसते । द्यां स्क॑भि॒त्व्य१॒॑प आ च॑क्रु॒रोज॑सा य॒ज्ञं ज॑नि॒त्वी त॒न्वी॒३॒॑ नि मा॑मृजुः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वक्ष॑सः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । वि॒ऽमृ॒शन्तः॑ । आ॒स॒ते॒ । द्याम् । स्क॒भि॒त्वी । अ॒पः । आ । च॒क्रुः॒ । ओज॑सा । य॒ज्ञम् । ज॒नि॒त्वी । त॒न्वि॑ । नि । म॒मृजुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवक्षसो अग्निजिह्वा ऋतावृध ऋतस्य योनिं विमृशन्त आसते । द्यां स्कभित्व्य१प आ चक्रुरोजसा यज्ञं जनित्वी तन्वी३ नि मामृजुः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवक्षसः । अग्निऽजिह्वाः । ऋतऽवृधः । ऋतस्य । योनिम् । विऽमृशन्तः । आसते । द्याम् । स्कभित्वी । अपः । आ । चक्रुः । ओजसा । यज्ञम् । जनित्वी । तन्वि । नि । ममृजुः ॥ १०.६५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवक्षसः) ज्ञानप्रकाश प्राप्त हुए (अग्निजिह्वाः) अग्नि की भाँति विद्या का प्रकाश करनेवाली वाणी जिनकी है, ऐसे वक्ता जन (ऋतावृधः) सत्य के वर्धक (ऋतस्य योनिं विमृशन्तः-आसते) सत्य के मूल परमात्मा को विचार करते हुए जो विद्यमान हैं, (द्यां स्कभित्वी) ज्ञानप्रकाश को सम्भालकर-धारण करके (अपः-चक्रुः) कर्म करते हैं (ओजसा यज्ञं जनित्वा) स्वात्मबल से अध्यात्मयज्ञ को प्रसिद्ध करके (तन्वि निममृजुः) अपने आत्मा को शुद्ध करते हैं-अलङ्कृत करते हैं ॥७॥
भावार्थ
जो ज्ञान में परिपक्व और वक्ताजन होते हैं, वे परमात्मा का मनन करते हैं, उसे सारे ज्ञानों का मूल मानते हैं। ऐसे महानुभाव ज्ञान के वर्धक और सत्य के प्रचारक होते हुए अपने आत्मा को अध्यात्मयज्ञ के द्वारा पवित्र एवं अलङ्कृत करते हैं ॥७॥
विषय
सूर्य की रश्मियों के तुल्य ज्ञानी पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(दिवक्षसः) सूर्य में रहने वाले सूर्य के किरण आकाश में व्यापते हैं, वे (अग्नि-जिह्वाः) अग्नितत्व की बनी जीभों के समान हैं, वे ही (ऋत-वृधः) अन्न और तेज की वृद्धि करते हैं, वे (ऋतस्य योनिं) तेज के मूल स्थान सूर्य, जल के स्थान मेघ, समुद्रादि और अन्न के स्थान भूतल को (वि-मृशन्तः आसते) विविध रूपों से स्पर्श करते हैं। वे (द्यां स्कभित्वी) आकाश और पृथिवी को व्याप कर (ओजसा) अपने तेजोबल से (आपः आ चक्रुः) जलों को ग्रहण करते हैं वे फिर (यज्ञं जनित्वी) उसका दान करके (तन्वि) विस्तृत पृथिवी पर वा जीवों के देहों में (नि मामृजुः) अन्न को सुभूषित करते हैं। इसी प्रकार सज्जन भी (दिवक्षसः) ज्ञान को धारण करने वाले, (अग्निजिह्वाः) अग्नि के तुल्य जिह्वा से ही ज्ञान का प्रकाश करने वाले, (ऋत-वृधः) सत्य ज्ञान और सत्य व्यवहार को बढ़ाने वाले, वे (ऋतस्य योनिम्) ज्ञान, सत्य के परम मूल कारण शास्त्र-योनिरूप परम ब्रह्म तत्व को (विमृशन्तः आसते) विमर्श, विचार करते रहते हैं। वे (द्यां) ज्ञान-विद्या को थाम कर, अपने (ओजसा) तप से (अपः चक्रुः) नाना सत् कर्म करते हैं। (यज्ञं जनित्वी) परस्पर संगति, विद्यादान और यज्ञ करके (तन्वि निमामृजुः) देह में चन्दनादिवत् उस महान् यज्ञमय उपास्य प्रभु को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को उस विस्तृत प्रभु में देखकर अपने को शुद्ध करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
दिव्य-जीवन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार वेदवाणी को अपनानेवाले लोग (दिवक्षसः) = ज्ञान के प्रकाश में निवास करनेवाले होते हैं । (अग्निजिह्वाः) = अग्नि के समान प्रभावशालिनी जिह्वावाले होते हैं । इनके मुख से उच्चरित शब्द अपवित्रता व मलिनता को दग्ध करनेवाले होते हैं । (ऋतावृधः) = ये अपने जीवन में ऋत का वर्धन करनेवाले होते हैं । (ऋत) = यज्ञ का वर्धन तो ये करते ही हैं, साथ ही इनका जीवन बिलकुल ऋतवाला होता है, इनकी प्रत्येक क्रिया ठीक समय पर की जाती है । [२] ये देव (ऋतस्य योनिम्) = सब यज्ञों व सत्यों के उत्पत्ति स्थान प्रभु को [ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसो- ऽध्यजायत] (विमृशन्तः) = विचारते हुए (आसते) = आसीन होते हैं । ये प्रभु का चिन्तन करते हैं, प्रभु का चिन्तन 'ऋत के उत्पत्ति स्थान' के रूप में करते हैं । इस प्रकार चिन्तन करते हुए ये अपने जीवन को ऋतमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। [३] ऋतमय जीवनवाले ये देव (द्यां स्कभित्वी) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को धारण करके, अर्थात् अपने ज्ञान को उत्तम बनाकर (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (अपः आचक्रुः) = अपने कर्त्तव्य कर्मों को करते हैं। इनके कर्म ज्ञानपूर्वक होते हैं, ज्ञानपूर्वक होने से ही इनके कर्म पवित्र होते हैं। इनके कर्म यज्ञात्मक बन जाते हैं । [४] (यज्ञं जनित्वी) = यज्ञों को जन्म देकर ये तन्वि शरीर में (निमामृजुः) = निश्चय से शोधन करनेवाले होते हैं। यज्ञात्मक कर्मों से इनका सारा जीवन ही पवित्र हो जाता है। इन कर्मों के होने पर शरीर में रोग नहीं आते, मन में राग-द्वेष का मैल नहीं होता और बुद्धि में कुण्ठता नहीं आ जाती। शरीर-मन-बुद्धि में पूर्ण शोधनवाले ये सचमुच देव होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- देव सदा प्रकाश में निवास करते हैं, इनके शब्द प्रभावशाली होते हैं, जीवन यज्ञमय होता है। यज्ञोपदेष्टा प्रभु का ये चिन्तन करते हैं। मस्तिष्क को ज्ञानपूर्ण करके ये शक्तिशाली कर्मों को करते हैं । यज्ञों के द्वारा जीवन को शुद्ध बनाते हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिवक्षसः) ज्ञानप्रकाशं प्राप्नुवन्तः “दिवक्षाः-ये दिवं विज्ञानप्रकाशादिकमक्षन्ति प्राप्नुवन्ति” [ऋ० ३।३०।३१ दयानन्दः] (अग्निजिह्वाः) अग्निविद्याप्रकाशिका वाग्येषां ते “जिह्वा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (ऋतावृधः) सत्यवर्धकाः (ऋतस्य योनिं विमृशन्तः-आसते) सत्यमूलं परमात्मानं विचारयन्तस्तिष्ठन्ति (द्यां स्कभित्वी) ज्ञानप्रकाशं स्कम्भयित्वा धारयित्वा (अपः-चक्रुः) कर्म “अपः कर्मनाम” [निघ० २।११] कुर्वन्ति (ओजसा यज्ञं जनित्वा) स्वात्मबलेनाध्यात्मयज्ञं प्रादुर्भाव्य (तन्वि निममृजुः) स्वात्मानम् “आत्मा वै तनूः” [श० ६।७।२।६] ‘द्वितीयास्थाने सप्तमी व्यत्ययेन’ शोधयन्ति अलङ्कुर्वन्ति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Cosmic divinities clothed in light with tongues of fire observe and augment the law of cosmic yajna, and together, in a spirit of grateful union, sit at the centre with the central cause of all cosmic evolution. Holding the heavens high with their lustre, creating the waters of life, and lighting up and sustaining the yajna fire, they anoint themselves with divine grace.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांचे ज्ञान परिपक्व असून, जे वक्ते असतात ते परमात्म्याचे मनन करतात, त्याला संपूर्ण ज्ञानाचे मूळ मानतात. अशी माणसे ज्ञानवर्धक व सत्यप्रचारक असतात व आपल्या आत्म्याला अध्यात्मयज्ञाद्वारे पवित्र व अलंकृत करतात. ॥७॥
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