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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    पावी॑रवी तन्य॒तुरेक॑पाद॒जो दि॒वो ध॒र्ता सिन्धु॒राप॑: समु॒द्रिय॑: । विश्वे॑ दे॒वास॑: शृणव॒न्वचां॑सि मे॒ सर॑स्वती स॒ह धी॒भिः पुरं॑ध्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पावी॑रवी । त॒न्य॒तुः । एक॑ऽपात् । अ॒जः । दि॒वः । ध॒र्ता । सिन्धुः॑ । आपः॑ । स॒मु॒द्रियः॑ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । शृ॒ण॒व॒न् । वचां॑सि । मे॒ । सर॑स्वती । स॒ह । धी॒भिः । पुर॑म्ऽध्या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावीरवी तन्यतुरेकपादजो दिवो धर्ता सिन्धुराप: समुद्रिय: । विश्वे देवास: शृणवन्वचांसि मे सरस्वती सह धीभिः पुरंध्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पावीरवी । तन्यतुः । एकऽपात् । अजः । दिवः । धर्ता । सिन्धुः । आपः । समुद्रियः । विश्वे । देवासः । शृणवन् । वचांसि । मे । सरस्वती । सह । धीभिः । पुरम्ऽध्या ॥ १०.६५.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पावीरवी) अज्ञाननाशक ज्ञानशस्त्र वेद का स्वामी परमात्मा उसकी वेदवाणी या विद्युत् शक्ति (तन्यतुः) अपनी दो धाराओं या ज्ञानबल को विस्तृत करनेवाली (अजः-एकपात्) अजन्मा एकरस (दिवः-धर्ता) मोक्षधाम या द्युलोक का धारक परमात्मा या सूर्य (सिन्धुः-समुद्रियः-आपः) बहनेवाले अन्तरिक्ष के जल या आप्त विद्वान् (विश्वेदेवासः) सब विषयों में प्रविष्ट विद्वान् या ऋतुएँ (सरस्वती) जलवती नदी या ज्ञानवती नारी (धीभिः पुरन्ध्या सह ) यथायोग्य कर्मों से स्तुति से बहुत प्रज्ञा के साथ (मे वचांसि शृण्वन्) मेरे वचनों को सुनें-मानें-पालन करें ॥१३॥

    भावार्थ

    अज्ञाननाशक परमात्मा की वेदवाणी अपने ज्ञान से मनुष्यों का उपकार करती है। मोक्ष का धारक परमात्मा तथा आप्त विद्वान् तथा ज्ञानवती नारी यथायोग्य आचरणों से मेरे निवेदनों को स्वीकार करें। एवं-द्युलोक का धारक सूर्यदेव और उसकी शक्ति और विद्युत् हमारे उपयोग में आवें। जल ऋतुएँ और नदियाँ हमारे लिए लाभप्रद बनें ॥१३॥

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    विषय

    उत्तम पुरुषों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    (पावीरवी) बाणों से युक्त सेना और देह आत्मादि को शोधन करने वाले नाना साधनों से युक्त (तन्यतुः) वाणी और (एकपात् अजः) अजन्मा, सर्व सञ्चालक, एकमात्र व्यापक प्रभु, (दिवः धर्त्ता) ज्ञान और पृथिवी वा विश्व का धारक, (समुद्रियः सिन्धुः) समुद्र को जाने वाले महानद के समान प्रभु को प्राप्त होने वाला आत्मा वा (समुद्रियः आपः) आकाश से उत्पन्न जलधाराओं के तुल्य ये नाना सृष्टियें और (विश्वे देवासः) समस्त विद्वान्गण (पुरम्-ध्या) नाना प्रकार की देहपोषक बुद्धि से युक्त (धीभिः) नाना कर्मों वाला (सरस्वती) वेदवाणी, (मे वचांसि शृणवन्) मेरे वचनों को श्रवण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    पावीरवी तन्यतु

    पदार्थ

    [१] (पावीरवी तन्यतुः) = मेरे जीवन को पवित्र करनेवाली मेघगर्जना के समान हृदयस्थ प्रभु की वाणी [तिस्रो वाच उदीरते हरिरेति कनिक्रदत्] (मे वचांसि शृणवत्) = मेरी पुकार को सुने, अर्थात् मैं प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला बनूँ, यह प्रेरणा मेरे जीवन को पवित्र करनेवाली है । [२] (एक-पाद् अज:) = [एक = मुख्य, पद गतौ] मुख्य गति देनेवाला [frime mover ] गति के द्वारा मलों को सुदूर फेंकनेवाला प्रभु मेरी पुकार को सुने। मेरे शरीरूप रथ को प्रभु ही गति देनेवाले हों और गति के द्वारा मेरे सब मलों का क्षय करनेवाले हो । [३] (दिवः) = प्रकाश का (धर्ता) = धारण करनेवाला (सिन्धुः) = ज्ञान का समुद्र आचार्य मेरी पुकार को सुने। इन आचार्यों के सम्पर्क में मेरी प्रवृत्ति भी ज्ञान की ओर हो। इस ज्ञान समुद्र आचार्य के समीप रहने पर (समुद्रियः आपः) = इस ज्ञान-समुद्र आचार्य के ज्ञान-जल मेरी पुकार को सुनें। ये मुझे प्राप्त हों और मेरे जीवन को शुद्ध करनेवाले हों। [३] (विश्वे देवासः) = सब देववृत्ति के ज्ञानी पुरुष मे (वचांसि शृणवन्) = मेरी प्रार्थना वाणी को सुनें। मुझे भी ये अपने समान ये देव बनाने की कृपा करें। [४] (धीभिः) = कर्मों के तथा (पुरन्ध्या) = पालक बुद्धि के (सह) = साथ (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता मेरी पुकार को सुने। मैं सरस्वती की आराधना से उत्तम कर्मोंवाला तथा खूब प्रज्ञानवाला होकर अपना हितसाधन कर सकूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं प्रभु की प्रेरणा को सुनूँ, सरस्वती का आराधक बनूँ ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पावीरवी) पविः शल्यः, तद्वत् पवीरमायुधमज्ञाननाशकं “तद्वानिन्द्रः पवीरवान्” [निरु० १२।३०] तस्य या सा पावीरवी विद्युच्छक्तिः, वेदवाग्वा (तन्यतुः) स्वधारे स्वबलं वा तनयित्री विस्तारयित्री (अजः-एकपात्) अजन्मा स एकरूपः-एकरसः (दिवः-धर्त्ता) मोक्षधाम्नो द्युलोकस्य वाधारयिता परमात्मा सूर्यो वा (सिन्धुः-समुद्रियः-आपः) स्यन्दमानाः-भ्रमणशीलाः ‘एकवचनं व्यत्ययेन’ आन्तरिक्ष्याः ‘समुद्रमन्तरिक्षनाम’ [निघ० १।३] आपः-आप्ता विद्वांसो जलानि मेघजलानि वा (विश्वेदेवासः) सर्वविषयप्रविष्टा विद्वांसः-ऋतवो  वा “ऋतवो वै विश्वेदेवाः” [श० ७।१।१।४३] (सरस्वती) जलवती नदी ज्ञानवती नारी वा (धीभिः पुरन्ध्या सह) यथायोग्यकर्मभिः स्तुत्या बहुविधप्रज्ञया सह (मे वचांसि शृण्वन्) मम वचनानि शृण्वन्तु मन्यन्तां स्वीकुर्वन्तु पालयन्तु ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thunder and lightning, the one absolute unborn eternal sustainer of heaven, the sun, flowing rivers, oceanic waves and waters, rain bearing clouds, all the divinities of nature and the seasons, and the divine mother of knowledge and speech with the cosmic intelligence and will may hear my prayer and respond.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अज्ञाननाशक परमात्म्याची वेदवाणी आपल्या ज्ञानाने माणसांवर उपकार करते. मोक्षधारक परमात्मा व आप्त विद्वान, तसेच ज्ञानवती नारी यांनी यथायोग्य आचरणाने माझ्या निवेदनाचा स्वीकार करावा व द्युलोकधारक सूर्यदेव व त्याची शक्ती विद्युत् आमच्यासाठी उपयोगी ठरावी. जल, ऋतू व नद्या आम्हाला लाभप्रद ठराव्यात. ॥१३॥

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