ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 15
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वान्वसि॑ष्ठो अ॒मृता॑न्ववन्दे॒ ये विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प्र॑त॒स्थुः । ते नो॑ रासन्तामुरुगा॒यम॒द्य यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वान् । वसि॑ष्ठः । अ॒मृता॑न् । व॒व॒न्दे॒ । ये । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । प्र॒ऽत॒स्थुः । ते । नः॒ । रा॒स॒न्ता॒म् । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । अ॒द्य । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवान्वसिष्ठो अमृतान्ववन्दे ये विश्वा भुवनाभि प्रतस्थुः । ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवान् । वसिष्ठः । अमृतान् । ववन्दे । ये । विश्वा । भुवना । अभि । प्रऽतस्थुः । ते । नः । रासन्ताम् । उरुऽगायम् । अद्य । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ १०.६५.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 15
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वसिष्ठः) सर्व विषयों में अत्यन्त बसा हुआ (अमृतान् देवान्) जीवन्मुक्त विद्वानों को (ववन्दे) प्रशंसित करता है (ये विश्वा भुवना-अभि प्रतस्थुः) जो जीवन्मुक्त सारे ज्ञानों को अधिकार में रखते हैं (ते) वे (नः) हमारे लिए (अद्य) आज-इस जीवन में (उरुगायं रासन्ताम्) बहुत प्रशंसनीय ज्ञान-परमात्मज्ञान को दें (यूयं स्वस्तिभिः-नः सदा पात) हे विद्वानों ! तुम कल्याणवचनों से हमें सदा सुरक्षित रखो ॥१५॥
भावार्थ
नव स्नातक विद्वान् को अपनी विद्यावृद्धि के लिए अन्य ऊँचे विद्वानों, जीवन्मुक्तों से ज्ञानवृद्धि करके आत्मशान्ति प्राप्त करनी चाहिए, जो सबसे उत्कृष्ट वस्तु है ॥१५॥
विषय
ब्रह्मचारी और आचार्य के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(वसिष्ठः) ब्रह्मचर्यपूर्वक आश्रम में बसने वाले ब्रह्मचारी गण में सर्वश्रेष्ठ आचार्य (अमृतान्) पुत्र तुल्य चिरंजीव प्राणवान्, (देवान्) विद्या के अभिलाषियों को (ववन्दे) सदा उपदेश करे। (ये) जो (विश्वा भुवना) समस्त लोकों में (अभि प्र-तस्थुः) जावें, (ते) वे (अद्य) अब सदा (नः) हमें (उरु-गायम् रासन्ताम्) बड़े भारी ज्ञानमय वेद का उपदेश करें। (यूयं स्वस्तिभिः नः सदा पात) ऐसे आप लोग सदा उत्तम कल्याणकारी साधनों से हमारी रक्षा करो। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
देव- वन्दन
पदार्थ
[१] (वसिष्ठः) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाला मैं (देवान् ववन्दे) = देवों का वन्दन करता हूँ, उनको आदर देता हूँ । उन देवों को जो (अ-मृतान्) = विषयों के पीछे मरते नहीं, जो संसार के प्रति आसक्त नहीं । (ये) = जो (विश्वा भुवना अभि) = सब लोगों की ओर (प्रतस्थुः) = जाते हैं । दुःखितों के दुःख को दूर करने के लिये स्वयं उनके समीप पहुँचते हैं, 'सर्वभूतहिते रत' बनते हैं । [२] (ते) = वे देव (नः) = हमें (अद्य) = आज (उरुगायम्) = जिसका खूब ही गायन किया जाता है उस प्रभु को (रासन्ताम्) = दें। ये देव हमें प्रभु का ज्ञान देनेवाले हों और उस प्रभु के उपासन की वृत्ति को भी प्रात्त करायें। हे देवो ! (यूयम्) = आप (नः) = हमें (स्वस्तिभिः) = उत्तम स्थिति के द्वारा (सदा पात) = सदा रक्षित करो। देवों की कृपा से हमारा जीवन मंगलमय हो ।
भावार्थ
भावार्थ - देवताओं का आदर करते हुए हम प्रभु का उपासन करनेवाले बनें और उन्हीं की तरह मंगल-मार्ग पर चलते हुए अपने कल्याण को सिद्ध कर सकें । सूक्त के प्रारम्भ में कहा था कि 'अग्नि आदि देव हमारे हृदयों को अपने ओज से भर दें' । [१] समाप्ति पर कहते हैं कि इनकी कृपा से हम प्रभु के उपासक बनें और मंगल मार्ग का आक्रमण करें, [१५] इन्हीं विश्वेदेवों से ही प्रार्थना है कि-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वसिष्ठः) सर्वविषयेषु वसितृतमः (अमृतान् देवान्) जीवन्मुक्तान् विदुषः (ववन्दे) अभिवन्दति (ये विश्वा भुवना-अभि प्रतस्थुः) ये जीवन्मुक्ताः सर्वाणि ज्ञानानि-अधिकारेण प्रतिष्ठन्ति (ते) ते खलु (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् काले जीवने (उरुगायं रासन्ताम्) बहुप्रशंसनीयं ज्ञानं परमात्मज्ञानं प्रयच्छतु (यूयं स्वस्तिभिः-नः सदा पात) हे विद्वांसो ! यूयं कल्याणवचनैरस्मान् सदा रक्षत ॥१५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The most brilliant sage celebrates and adores the immortals who abide in all regions of the world. May they now give us universal knowledge and vision of the highest adorable lord divine. O Vishvedevas, pray always protect and promote us with all that is good for total well being of life.
मराठी (1)
भावार्थ
नवीन स्नातक विद्वानाने आपल्या विद्यावृद्धीसाठी इतर उच्च विद्वान, जीवनमुक्तांकडून ज्ञानवृद्धी करून आत्मशांती प्राप्त केली पाहिजे जी सर्वांत उत्कृष्ट वस्तू आहे. ॥१५॥
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