ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
मि॒त्राय॑ शिक्ष॒ वरु॑णाय दा॒शुषे॒ या स॒म्राजा॒ मन॑सा॒ न प्र॒युच्छ॑तः । ययो॒र्धाम॒ धर्म॑णा॒ रोच॑ते बृ॒हद्ययो॑रु॒भे रोद॑सी॒ नाध॑सी॒ वृतौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्राय॑ । शि॒क्ष॒ । वरु॑णाय । दा॒शुषे॑ । या । स॒म्ऽराजा॑ । मन॑सा । न । प्र॒ऽयुच्छ॑तः । ययोः॑ । धाम॑ । धर्म॑णा । रोच॑ते । बृ॒हत् । ययोः॑ । उ॒भे इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । नाध॑सी॒ इति॑ । वृतौ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्राय शिक्ष वरुणाय दाशुषे या सम्राजा मनसा न प्रयुच्छतः । ययोर्धाम धर्मणा रोचते बृहद्ययोरुभे रोदसी नाधसी वृतौ ॥
स्वर रहित पद पाठमित्राय । शिक्ष । वरुणाय । दाशुषे । या । सम्ऽराजा । मनसा । न । प्रऽयुच्छतः । ययोः । धाम । धर्मणा । रोचते । बृहत् । ययोः । उभे इति । रोदसी इति । नाधसी इति । वृतौ ॥ १०.६५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मित्राय वरुणाय दाशुषे शिक्ष) हे मनुष्य ! तू संसार में कर्मकरणार्थ प्रेरित करनेवाले मित्ररूप परमात्मा के लिए, मोक्ष में वरनेवाले तथा सांसारिक सुख एवं मोक्षानन्द देनेवाले के लिए अपने को समर्पित कर (या) जो दोनों मित्र और वरुण धर्मवाला परमात्मा (सम्राजा) सम्यक् राजमान (मनसा न प्रयुच्छतः) ज्ञान से प्रमाद नहीं करता है (ययोः-बृहत्-धाम) जिसका महान् मोक्षधाम है (धर्मणा रोचते) जो तेजोधर्म से प्रकाशमान होता है (उभे रोदसी नाधसी वृतौ) दोनों द्यावापृथिवी समृद्ध मार्ग में रहते हैं-वर्तते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा मनुष्य को संसार में कर्म करने के लिए प्रेरित करता है और मोक्ष में सुख देने के लिए ग्रहण करता है। ऐसे उस दाता के प्रति अपना समर्पण करना चाहिए। वह परमात्मा कभी भी कर्मफल देने में प्रमाद नहीं करता है और द्यावापृथिवी उसके शासन में चलते हैं ॥५॥
विषय
मित्र वरुण, वायु जलवत् दानी स्नेही, महापुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(दाशुषे मित्राय दाशुषे वरुणाय शिक्ष) वायु और जल के तुल्य दान देने वाले स्नेही, और दान देने वाले श्रेष्ठ जन के लिये तू भी प्रदान कर। (या) जो वे दोनों (सम्राजा) गुणों से अच्छी प्रकार चमकने वाले सम्राट् के तुल्य होकर (मनसा) चित्त से कभी (न प्रयुच्छतः) प्रमाद नहीं करते, (ययोः धर्मणा) जिनके धारण सामर्थ्य से (बृहत् धाम) बड़ा भारी उनका तेजोमय शरीर या लोक, (रोचते) सूर्यवत् प्रकाशित होता और सबको प्रिय लगता है, और (ययोः) जिनके सामर्थ्य से (उभे रोदसी) दोनों ये लोक (नाघसी) नाना ऐश्वर्यों से युक्त (वृतौ) वर्तमान हैं। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
मित्र और वरुण
पदार्थ
[१] हे जीव ! तू (मित्राय) = मित्र देवता के लिये, अर्थात् स्नेह की भावना के लिये और (वरुणाय) = द्वेष के निवारण के लिये (शिक्ष) = समर्थ होने की इच्छा कर [ शक्+सन्] । तू प्रयत्न कर कि सब के प्रति तेरी स्नेह की भावना हो और किसी से भी तू द्वेष को न करे । [२] ये मित्र और वरुण वे हैं (मा) = जो (दाशुषे) = दाश्वान् के लिये, अपने को मित्र और वरुण के प्रति दे डालनेवाले के लिये (सम्राजा) = उत्तम दीप्ति को देनेवाले हैं। स्नेह व निर्देषता के कारण जीवन दीप्तिमय बनता ही है। ये मित्र और वरुण अपने आराधक के हित करने के कार्य में (मनसा न प्रयुच्छतः) = मन से भी प्रमाद नहीं करते, क्रिया से प्रमाद करने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। अप्रमाद से ये अपने आराधक का कल्याण करते हैं । [३] ये मित्र और वरुण वे हैं (ययोः) = जिनका (धाम) = तेज (धर्मणा) = धारक शक्ति से (बृहत् रोचते) = खूब ही चमकता है। मित्र और वरुण हमारा धारण करते हैं और इनके विपरीत कटुता और क्रोध हमारी शक्तियों का नाश करते हैं । द्वेष से मनुष्य अन्दर ही अन्दर जल जाता है। [४] ये मित्र और वरुण वे हैं (ययोः) = जिनके (उभेरोदसी) = दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक, अर्थात् मस्तिष्क और शरीर नाधसी ऐश्वर्य सम्पन्न (वृतौ) [वर्तमाने भवतः सा०] होते हैं मित्र और वरुण के आराधन से मस्तिष्क ज्ञान-सम्पन्न होता है और शरीर शक्ति- सम्पन्न होता है । ईर्ष्या, द्वेष व क्रोध ज्ञान और शक्ति दोनों का ही क्षय करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्दोषता हमारे जीवन को दीप्त बनाते हैं, हमारे जीवन का धारण करते हैं और हमारे मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न व शरीर को शक्ति सम्पन्न करते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मित्राय वरुणाय दाशुषे शिक्ष) हे मानव ! त्वं मित्ररूपाय परमात्मने संसारे कर्मकरणार्थं प्रेरकाय वरुणाय-मोक्षे वरयित्रे परमात्मने सांसारिकमोक्षगतसुखानन्ददात्रे स्वात्मानं समर्पय (या) यौ मित्रवरुणरूपौ-सः परमात्मा (सम्राजा) सम्यग्राजमानौ-सम्यग्राजमानः (मनसा न प्रयुच्छतः) ज्ञानेन न प्रमाद्यतः-न प्रमाद्यति (ययोः-बृहत्-धाम) ययोर्यस्य महद् धाम मोक्षाख्यम् “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ० १०।९०।३] (धर्मणा रोचते) तेजोधर्मणा प्रकाशते (उभे रोदसी नाधसी वृतौ) द्यावापृथिव्यौ समृद्धे वृतौ-मार्गे वर्तेते ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Offer homage to Mitra and Varuna, complementary centripetal and centrifugal currents of cosmic energy, both sovereign and self-lustrous which never fault on their observance of law and generosity by their very nature. Their abode and sphere of operation shines by their law of Dharma and the great heaven and the great earth both abide in their vast sphere of cosmic dynamics. Offer homage to these generous givers of the light of day and peace of the night.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा माणसाला जगात कर्म करण्यासाठी प्रेरित करतो व मोक्षात सुख देण्यासाठी स्वीकार करतो. अशा दात्यासाठी आपले संपूर्ण समर्पण केले पाहिजे. परमात्मा कधीही कर्मफळ देण्यात प्रमाद करत नाही. द्यावा पृथ्वी त्याच्या शासनानुसार चालतात. ॥५॥
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